परिवर्तन संसार का नियम है (Change is the evidence of life)

Change is the evidence of life

मित्रो , एक पुरानी कहावत है कि परिवर्तन संसार का नियम है।  आज मैं इस ब्लॉग पोस्ट में कई ऐसे प्रोडक्ट्स (उत्पादों) के उदाहरण के माध्यम यह दिखाना चाहूंगा , कि कैसे कभी संसार के शीर्ष पर रहे प्रोडक्ट , आज समय की नब्ज नहीं समझ पाए और समय के साथ बदलती परस्तिथियों के अनुसार नहीं बदल , जिससे या तो वो संसार से लगभग गायब हो गए या अपने शीर्ष से नीचे लुढ़क गए। याद रखिये जो फल पकने के बाद भी पेड़ पर लगे रह जाते हैं , वो और अधिक मीठे नहीं होते, बल्कि सड़ जाते हैं और एक जगह पड़े पानी में काई लग जाती है जबकि बहता पानी अधिक स्वच्छ रहता है।

आइये उदाहरणों की मदद से यह समझते हैं।

स्विज़रलैंड की घड़ियाँ

साठ के दशक में स्विज़रलैंड की घड़ियाँ पूरी दुनिया पर राज करती थीं। ऐसा लगता था कि शायद घड़ियों के बाजार पर हमेशा स्विज़रलैंड का ही राज रहेगा। पर स्विज़रलैंड की घड़ी उत्पादक कंपनियां बदलते वक्त और करवट लेती टेक्नोलॉजी को नहीं समझ पाईं और 80 के दशक में टिक टिक करती घड़ियों को एल सी डी डिस्प्ले वाली जापानी क्वार्ट्ज़ (quartz) घड़ियों ने न केवल कड़ी टक्कर दी बल्कि कुछ समय के लिए तो लगभग लुप्त ही कर दिया था। उसके बाद जितनी भी टिक टिक घड़ियों की वापसी हुई वो टाइम देखने के लिए कम और टशन या स्टेटस सिंबल के लिए ज्यादा हुई , जैसे कभी हमारी शर्ट की जेबें नीले करने वाले फाउंटेन पेन आजकल बहुत महंगे होकर अमीरों की जेबों में अमीरी का स्टेटस सिंबल बन गए है , भले ही उनका इस्तेमाल दिन में शायद चार बार साइन करने के सिवा कुछ और न हो। चलिए घड़ियों की बात पर वापस आते हैं। भारत में भी यही कहानी घटी और केवल टिक टिक घड़ियां बनाने वाली एच एम टी कंपनी अपने आप को ना बदल पाने की वजह से टाइटन की क्वार्ट्ज़ घड़ियों को टक्कर न दे सकी और लगभग लुप्त हो गयी।

जापानी क्वार्ट्ज़ (quartz) घड़ियाँ

अस्सी और नब्बे के शुरुआती दशक में राज करने वाली क्वार्ट्ज़ घड़ियाँ भी अपना शीर्ष स्थान कायम नहीं रख पायीं क्योंकि वो भी आगे बढ़ती कंप्यूटर टेक्नोलॉजी को नहीं भांप पायी और तब तो क्वार्ट्ज़ घड़ियाँ बिलकुल गायब हो गईं जब माइक्रोसॉफ्ट विंडोज 95 (Microsoft Windows 95) के आने के बाद हमारे चारों ओर कम्प्यूटरों की भरमार होने लगी और हर कंप्यूटर में दायीं और नीचे के तरफ घड़ी उपलब्ध थी। इसके बाद लोगों का टाइम देखने का तरीका बदलने लगा और लोग टाइम जानने के लिए कलाई की ओर न देखकर कंप्यूटर की ओर देखने लगे।


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माइक्रोसॉफ्ट विंडोज (Microsoft Windows)

एक समय पर एप्पल मैकिनटोश को हाँशियें पर धकेल कर दुनिया पर राज करने वाला माइक्रोसॉफ्ट विंडोज भी दुनिया में अपनी स्तिथि कायम नहीं रख पाया और यहाँ दूसरे प्रोडक्ट या तो बाजी मार ले गए या कड़ी टक्कर देने लगे। यहाँ लड़ाई थोड़ी अलग तरह की थी। आइये देखते हैं कि क्या और कैसे हुआ।

इसमें कोई शक नहीं कि माइक्रोसॉफ्ट ने एक बेहतरीन ऑपरेटिंग सिस्टम (operating system) तैयार किया था , या शायद सबसे अच्छा। पर शायद माइक्रोसॉफ्ट को लगा कि कम्प्यूटर्स (computers) ही दुनिया पर हमेशा राज करते रहेंगे और शायद  स्मार्टफोन्स (smartphones) के आने की पदचाप माइक्रोसॉफ्ट सुन नहीं पाया और जल्दी ही मुकाबले का मैदान ही बदल गया। दुनिया भर में मोबाइल , कम्प्यूटरों को हटा कर अपनी जगह बना रहे थे और गूगल अपने एंड्राइड (Android) ऑपरेटिंग सिस्टम द्वारा इस बदलाव का नेतृत्व कर रहा था। माइक्रोसॉफ्ट जिन सड़कों का विजेता था वो सड़कें बदल रहीं थीं और नई सड़कों के लिए तो माइक्रोसॉफ्ट ने गाड़ी डिज़ाइन ही नहीं की थी। कम्प्यूटर्स की दुनिया का विजेता मोबाइल की दुनिया में नदारद था। माइक्रोसॉफ्ट ने नोकिआ को खरीद कर मुकाबले में आने की कोशिश भी की पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

उधर एक और परिवर्तन माइक्रोसॉफ्ट के लिए मुसीबत बनने वाला था और वो था , जिस एप्पल (Apple) को वो लैपटॉप्स (laptops) में पीछे छोड़ आया था , उसने मोबाइल की दुनिया में अपनी पहचान स्थापित कर ली थी। एप्पल का मोबाइल रखना अब एक स्टेटस सिंबल (status symbol) बन चुका था। एप्पल के मोबाइल के साथ साथ दुबारा उदय हुआ एप्पल लैपटॉप्स का। जो ऑपरेटिंग सिस्टम कभी इस कारण माइक्रोसॉफ्ट से पिछड़ गया था कि माइक्रोसॉफ्ट विंडोज ज्यादा यूजर फ्रेंडली (user friendly) था , वो दुबारा अपनी जगह बना चुका था।  अब एप्पल का लैपटॉप थोड़ा महंगा होते हुए भी बिक रहा था क्योंकि अब एप्पल का नाम एक स्टेटस सिंबल बन चुका था।

माइक्रोसॉफ्ट इंटरनेट एक्स्प्लोरर (Microsoft Internet Explorer)

एक समय में माइक्रोसॉफ्ट इंटरनेट एक्स्प्लोरर इंटरनेट ब्राउज़िंग (internet browsing) का पर्याय बन चुका था। माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज के साथ इसे फ्री देकर उस समय के बाकी ब्राउज़र (browsers) की दुकान बंद कर दी थी। पर माइक्रोसॉफ्ट के देखते देखते गूगल क्रोम (Google Chrome) आया और पता ही नहीं चला की कब इंटरनेट एक्स्प्लोरर, ब्राउज़िंग की दुनिया में हाशिये पर आ गया। इसके पीछे कुछ कारण थे। पहला कि गूगल क्रोम एक तेज ब्राउज़र (web browser) था और ज्यादा रेस्पॉन्सिव (responsive) था।  ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गूगल ने कम इस्तेमाल होने वाले फीचर्स (features) , एक्सटेंशन्स (extensions) में दाल दिए जिससे बेसिक (basic) ब्राउज़र बेहद हल्का और फ़ास्ट (fast) हो गया। दूसरा कारण शायद यह रहा कि इंटरनेट एक्स्प्लोरर का डिफ़ॉल्ट होमपेज (default homepage) एम एस एन (msn) था जो लोड होने में क्रोम के डिफ़ॉल्ट होम पेज गूगल (google.com) के मुकाबले हैवी (heavy) था। फिर डिफ़ॉल्ट पेज में एम एस एन (msn) का खुलना किसी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता था जबकि डिफ़ॉल्ट पेज में एक सर्च इंजन का खुलना सबकी आवश्यकता थी।


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गूगल ऑरकुट (Google Orkut)

जिसने गूगल ऑरकुट का इस्तेमाल किया है , वो जनता है की गूगल ऑरकुट का कॉसेप्ट लगभग वैसा ही था जो फेसबुक का है , यानि कि सोशल नेटवर्किंग। यहाँ तक कि दोनों के बहुत सारे फीचर्स भी एक जैसे ही थे। गूगल का यह प्रोडक्ट ठीक ठाक पॉपुलर था। पर शायद गूगल के लिए ऑरकुट उनके बहुत सारे चलते हुए प्रोडक्ट्स में से एक था और फेसबुक के लिए फेसबुक उनका एकमात्र करो या मारो प्रोडक्ट था। और स्ट्रेटेजिक अंतर का असर जल्द ही दिखने लगा।  फेसबुक की लोकप्रियता बढ़ने लगी और वो जल्दी ही दुनिया की नंबर वन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट बन गई। पर हैरानी तब हुई जब गूगल ने फेसबुक तो टक्कर देने की बजाय ऑरकुट को बंद करने का निर्णय लिए होता।  यदि गूगल ने ऑरकुट को बंद न करके फेसबुक को टक्कर देने की सोची होती तो शायद आज दुनिया के पास सोशल नेट्वोर्किंग के दो बेहतरीन प्लेटफार्म होते।

पेपाल (Paypal)

यदि आप आईटी इंडस्ट्री से हैं तो आपने पेपाल (Paypal) का नाम अवश्य सुना होगा। एक समय में पेपाल (Paypal) ने ईमेल से पैसे भेजने और मँगाने का बहुत ही बेहतरीन और सरल सिस्टम डिज़ाइन किया था और इसमें वो एक समय में शीर्ष पर था। भारत के आई टी वाले लोग जो फ्री लांसर का काम करते हैं उनके लिए तो पेपाल (Paypal) किसी वरदान से काम नहीं था।  ईबे (ebay) जो एक समय में ऑनलाइन सामान खरीदने और बेचने की सबसे बड़ी कंपनी थी उसका पसंदीदा (preffered) भुगतान भागीदार (payment partner) भी पेपाल (Paypal) ही था।

मुझे अपडेट नहीं है की विदेशों से पैसा मँगाने में आज भारत के लोग पेपाल (Paypal) का कितना इस्तेमाल करते है।  पर जब मैंने मैंने थोड़ा गूगल किया तो पाया कि आज इस काम के लिए और भी कई तरीके उपलब्ध हैं।

आइये आज पेपाल (Paypal) की भारत में स्तिथि देखते हैं। दुनिया कम्प्यूटर्स से मोबाइल की ओर जा रही थी।  भारत भी एक स्मार्टफोन उपभोक्ता के रूप में उभर रहा था। भारत में स्मार्टफोन लोगों का परिवार वालों से भी बड़ा मित्र बन चुका था। ईमेल का इस्तेमाल कम हो रहा था , मोबाइल का इस्तेमाल बढ़ रहा था। पेपाल (Paypal) का पैसे ट्रांसफर का तरीका ईमेल पर आधारित था। भारत में एक नए किस्म का पेमेंट सिस्टम एक प्राइवेट कंपनी पेटीम (paytm) द्वारा लांच किया गया  , जिसमें आप ईमेल की बजाय मोबाइल नंबर से पैसे ट्रांसफर कर सकते थे। यह इतना आसान तरीका था कि देखते ही देखते पेटीम ने (paytm) भारत के पेमेंट सिस्टम में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया। लोग 10 रूपए के मोबाइल रिचार्ज के लिए भी पेटीम और फोनपे (phonepe) का इस्तेमाल करने लगे। और फिर यू पी आई (UPI) के आने से तो जैसे सोने पे सुहागा हो गया। बैंक से पैसे ट्रांसफर करने का दुनिया का सबसे सरल सिस्टम यू पी आई (UPI) के रूप में भारत में मौजूद गया।  पूरी दुनिया इसकी सफलता को आश्चर्य से देख रही थी।  गूगल (Google) जैसी कंपनी ने भी इसकी तारीफ की।  भारत की जीडीपी का एक हिस्सा अब यू पी आई (UPI) पर आधारित ट्रांसक्शन्स (transactions) पर आधारित हो गया । आज भारत में में पेटीम (paytm), फोनपे (phonepe), गूगल पे (google pay) और अमेज़ॉन पे (amazon pay) जैसी भारतीय और वैश्विक दिग्गज कंपनियां इस क्षेत्र में अग्रणी हैं , बस नदारद है तो दुनिया को एक समय में सबसे सरल पेमेंट सिस्टम देने वाला पेपाल (Paypal) । ऐसा नहीं है कि  पेपाल (Paypal) भारत में आना नहीं चाहता। पेपाल (Paypal) ने भी भारत में टीवी और वेब विज्ञापनों की मदद से अपनी पहचान बनाने की कोशिश शुरू कर दी है। देखते हैं क्या परिणाम होता है।


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वोडाफोन / आईडिया / एयरटेल  (Vodafone / Idea / Airtel)

मित्रो एक समय भारत की उपभोक्ता टेलिकॉम मार्किट पर एकछत्र राज करने वाली वोडाफोन आईडिया और एयरटेल के पैरों के नीचे से उस समय जमीन निकल गयी जब रिलायंस जियो की एंट्री हुई। एक नए प्लेयर ने पुरानी जमी हुई तीन कंपनियों का साम्राज्य हिला दिया।  इसके पीछे एक ही कारण था और वो था डाटा। रिलायंस जियो ने वक्त की नब्ज़ को समझा और नार्मल वौइस् (voice) प्लान के साथ भारत के डाटा हंगरी यूजर्स को एक जी बी (GB) डाटा हर रोज ऑफर किया।  यह ऑफर इतना बड़ा था की उस समय इसका कोई तोड़ नहीं था।  उस समय तक वोडाफोन आईडिया और एयरटेल अपने प्रचलित प्लानों में बहुत कम डाटा ऑफर कर रहे थे।  शायद उनके पॉपुलर प्लान एक जी बी (GB) डाटा के आस पास पूरे महीने दिया करते थे।  जिसके कारण लोग डाटा स्विच ऑफ करके रखा करते थे और जरूरत पड़ने पर ही ऑन (on) किया करते थे और दूसरों को भी ऐसी ही सलाह दिया करते थे क्योंकि कई ऍप बैक एन्ड में डाटा कंस्यूम करते रहते थे और एक  जी बी डाटा झट से ख़तम हो जाता था , लेकिन प्लान के अनुसार तो एक जी बी पूरे महीने चलना होता था। इसीलिए रिलायंस के एक जी बी डाटा प्लान ने तो जैसे क्रांति ही ला दी।  अब लोग व्हाट्स एप , यूट्यूब और गूगल मैप जैसे ऍप्स का खुलकर उपयोग करने लगे और जल्दी ही इन कंपनियों के यूजर्स रिलायंस की ओर जाने लगे। यह देख इन कंपनियों ने भी तुरत फुरत एक से दो जी बी डाटा रोज वाले प्लान लॉन्च किये , जिससे यही समझ में आया कि ये वो पहले भी कर सकते थे , बस इंतजार कर रहे थे की कोई उनके कम्फर्टेबले जोन में आकर उनको झकझोरे।  लेकिन तब तक काफी बिज़नेस लूज़ (loose) हो चुका था ,

बजाज स्कूटर्स (Bajaj Scooters)

एक समय था जब बजाज स्कूटर भारत में बुक कराने पड़ते थे , बुक करने के कई साल बाद डिलीवरी का नंबर आता था और यदि आपको डिलीवरी मिलने वाली होती थी तो आप अपनी बुकिंग को ब्लैक में हाथों हाथ बेच सकते थे। इसी कारण से कहा जाता था की बजाज स्कूटर को भारत में स्कूटर बेचने के लिए विज्ञापन देने की कोई जरुरत नहीं है। किन्तु एल एम एल वेस्पा के बाजार में आने के बाद यह स्तिथि बदल गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एल एम एल के आने से बाजार स्कूटरों की डिलीवरी में थोड़ी तेजी आ गयी । एल एम एल ने स्कूटरों में इंडिकेटर दिया , जो पब्लिक ने हाथों हाथ लिया और सरकार को इतना अच्छा लगा कि सरकार ने स्कूटरों में  इंडिकेटर अनिवार्य कर दिया और इसके बाद बजाज को भी स्कूटरों में इंडिकेटर देना पड़ा। इस सबके बीच एल एम एल स्कूटर बाजार में अपनी एक छोटी सी जगह बना चुका था। एल एम एल द्वारा बजाज स्कूटरों को दिए गए कम्पीटिशन का असर यह हुआ कि 80 के दशक में ब्लैक में मिलने वाले स्कूटर्स धीरे धीरे ऑन डिमांड मिलने लगे और बजाज स्कूटर्स ने भी मुकाबला करने के लिए 'हमारा बजाज' नाम से विख्यात विज्ञापन टीवी पर देना शुरू कर दिया।

नई सदी में बजाज को लगा कि शायद आने वाला वक्त मोटरसाइकलों यानि कि बाइकों का है। परन्तु जिसको बजाज ने स्कूटरों का भारत में अंत माना था वह वास्तव में स्कूटरों में एक बहुत बड़े अध्याय की शुरुआत थी। बाजार में होंडा एक्टिवा (Honda Activa) का आगमन हुआ , जिसे हम स्कूटी कहते हैं दरअसल वह कुछ कम सी सी (cc वाला बिना गियर का स्कूटर ही है। सिर्फ गियर न होने से वह इतना लोकप्रिय हुआ (खास तौर से महिलाओं में) कि उनसे न केवल बजाज स्कूटर की अनुपस्तिथि में जो शून्यता उत्पन्न हुई थी उसको भरा , बल्कि मोटरसाकल की बिक्री को भी टक्कर दे दी।  जिस समय को बजाज ने केवल मोटरसाइकलों का माना , दरअसल उस समय पब्लिक एक ऐसे स्कूटर का इंतजार कर रही थी जिसे चलाना सबके लिए आसान हो। भारत में स्कूटर क्रांति हो रही थी, पर उस क्रांति में यदि कोई शामिल नहीं था तो हमारा प्यारा बजाज स्कूटर , जिसने वक्त के अनुरूप बाजार में बिना गियर का स्कूटर ना उतार कर पब्लिक को कुछ नया देने की बजाय स्कूटर बनाने ही बंद कर दिए।


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निरमा (Nirma)

एक समय में भारत में में वाशिंग पाउडर का पर्याय बन चुका निरमा भी अपने नंबर एक के स्थान को ज्यादा समय तक कायम न रख सका। निरमा उस समय के एक प्रचलित वाशिंग पाउडर सर्फ से काफी सस्ता था , झाग भी अच्छे बनाता था , और कपड़े भी अच्छे धुलते थे। इसलिए लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया।  परन्तु इसकी एक बड़ी कमी थी।  इसके इस्तेमाल से हाथ जलते थे। काफी समय तक निरमा ने इस समस्या को हल करने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया और जल्दी ही मार्किट में नया वाशिंग पाउडर 'व्हील' आ गया , जिसमें वो सारी विशेषताएं थीं जो निरमा में थीं पर वह इस्तेमाल से हाथों में जलन नहीं पैदा करता था।  व्हील निरमा को पछाड़ तो नहीं पाया पर उससे निरमा को कड़ी टक्कर जरूर मिली। व्हील के बाद मार्किट में कदम रखा एरिअल और टाइड ने , फिर सर्फ एक्सेल ने।  और सही मायने में इन तीनों ने निरमा से महंगे होते हुए भी , अपने अच्छे प्रोडक्ट और टीवी पर दनादन विज्ञापनों की मदद से निरमा के नाम को लोगों के दिमाग से कुछ हल्का कर दिया और निरमा की लोकप्रियता धीरे धीरे मार्किट में कम होने लगी। यहाँ इस कहानी से ऐसा लगता है कि खूब विज्ञापनों के दम पर किसी भी प्रोडक्ट को मार्किट में स्थापित किया जा सकता है तो  ऐसा बिल्कुल नहीं है। विज्ञापन को यदि गुणवत्ता का सहारा ना मिले तो प्रोडक्ट का मार्किट में लम्बे समय तक टिकना संभव नहीं है।  उदहारण के लिए मैं यहाँ घडी डिटर्जेंट का नाम लेना चाहूँगा , जिसकी पैकिंग शायद एरिअल टाइड और सर्फ एक्सेल जैसी नहीं है , कीमत भी कम है , और गुणवत्ता में भी कोई कमी नहीं है।  इसके विज्ञापन भी एरिअल टाइड और सर्फ एक्सेल के मुकाबले कम आते हैं फिर भी अपनी गुणवत्ता के कारण यह बहुत लोकप्रिय है और मुझे डाटा तो नहीं पता पर शायद घडी डिटर्जेंट भारत का नंबर वन हो।

राजपूत और अन्य भारतीय राजा (Rajpoot)

अगर आपने पुरानी कहानियां पढ़ीं हो तो आप जानने लगेंगे की भारत के राजपूत और अन्य भारतीय राजा अपनी आन बान शान के लिए युद्ध किया करते थे। वो युद्ध में भी जीवन मूल्यों को कभी नहीं छोड़ते थे , जैसे हारे हुए राजा को जीवित छोड़ देना , शरण में आये का वध नहीं करना , निशस्त्र पर शस्त्र ना उठाना , पींठ पर वार ना करना , युद्ध की मार काट से जनता को दूर रखना, पूजा स्थलों पर आक्रमण ना करना, स्त्रियों और बच्चों पर शस्त्र न उठाना इत्यादि। भारतीय राजाओं को लगता था की शायद ऐसे ही युद्ध होते हैं , परन्तु वे बदलते समय को नहीं समझ पाए और जब भारत में विदेशी आक्रमण होने लगे तो भारतीय राजाओं का सामना ऐसे आक्रमणकारियों से होने लगा जिनके जीवन मूल्य कुछ और ही थे। विदेशी आक्रमणकारी युद्ध को आन , बान , शान के लिए नहीं, केवल जीतने के लिए लड़ते थे। हारे हुए राजा का वध कर देना, धोखे से आक्रमण करना, युद्ध जीतने के बाद जनता में मारकाट करना, स्त्रियों का बलात्कार , धार्मिक स्थानों में तोड़ फोड़ उनके युद्ध अस्त्र थे।  विदेशी आक्रमणकारियो के लिए युद्ध में भावनाओं का कोई स्थान न था। इस तरह के जीवन मूल्यों से भारत के राजा परिचित न थे और नतीजा यह हुआ कि , भारत के बाहर हो रहे परिवर्तनों को न समय पर ना समझ पाने के कारण भारतीय राजा अपनी युद्ध नीतियों में जरूरी सुरक्षात्माक परिवर्तन नहीं कर पाए और आक्रमणकारियों को रोकने में विफल रहे।


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मुग़ल (Mughal)

मुग़ल वैसे तो विदेशी आक्रमणकारी ही थे , परन्तु वे दूसरे आक्रमणकारियों से कुछ अलग थे। जहाँ मुग़लों से पहले आये आक्रमणकारी भारत को लूट कर चले गए, वही मुग़ल भारत में ही बस गए।  भारत में उनकी छह सात पीढ़ियों ने राज किया और एक समय लगभग तीन चौथाई से भी ज्यादा भारत पर उनका राज था।  इसमें कोई शक नहीं की मुग़ल कुशल प्रशासक थे  परन्तु बदलते वक्त के साथ न वो अपने आप को और न ही भारत को बदल सके। यूरोप में जहाँ एक और औद्योगिक क्रांति हो रही थी , वहीं मुग़लों के नेतृत्व में भारत इससे एकदम अछूता था।  मुग़ल जहां अपने शासन की लड़ाइयों , भोग विलासिता और बड़ी बड़ी इमारतें बनवाने में व्यस्त थे, उसी समय दुनिया साइंस और टेक्नोलॉजी में भारत से काफी आगे निकल गयी।  और अपने आप को समय के साथ परिवर्तित न करने का नतीजा यह हुआ कि मुग़लों से तकनीक में उन्नत हथियारों वाली यूरोपीय ताकतें जब भारत को लूटने आयीं तो मुग़ल अपना साम्राज्य और भारत दोनों को बचाने में नाकाम रहे।

समाप्त।


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2 comments:

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