भगवान श्री राम (Lord Shri Rama)

राम जन्म 

त्रेता  युग में कौशल राज्य में इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ राज्य करते थे। उनकी राजधानी अयोध्या थी ,जो  सरयू नदी के तट पर बसी थी।  राजा दशरथ  की तीन रानियां थीं - कौशल्या ,सुमित्रा और कैकेयी ,किन्तु तीनों के कोई संतान नहीं थी। राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ करने का निर्णय किया। यज्ञ संपन्न करने के लिए महाराज दशरथ स्वयं श्रृंगी ऋषि को बुलाकर लाये। महाराज दशरथ ने अग्निकुंड में जब अंतिम आहुति डाली तो स्वयं अग्निदेव हाथ मे  खीर का एक पात्र लिए उनके सामने प्रकट हो गए। राजा ने खीर का पात्र रानी कौशल्या को दे दिया। कौशल्या ने आधी खीर अपने लिए रखकर शेष रानी सुमित्रा को दे दी। सुमित्रा ने उसमें से आधी खीर रखकर बाकी रानी कैकेयी को दे दी। कैकेयी ने उसमें से आधी खीर खाकर बाकी सुमित्रा को लौटा दी। खीर खाकर तीनों  रानियाँ गर्भवती हो गईं। समय आने पर रानियों ने पुत्रों को जन्म दिया। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को महारानी कौशल्या के गर्भ से राम का जन्म हुआ। दूसरी रानी सुमित्रा ने दो पुत्रों लक्ष्मण और शत्रुघन को जन्म दिया। छोटी रानी कैकेयी के गर्भ से भरत उत्पन्न हुए।



ताड़का वध 

चारों राजकुमार जब कुछ और बड़े हुए तो राजा दशरथ ने उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए आश्रम में भेज दिया। शिक्षा पूर्ण होते -होते राजकुमारों ने युवावस्था में प्रवेश किया।  राजा दशरथ और तीनों रानियाँ राजकुमारों के विवाह के बारे में सोचने लगे।  तभी ऋषि विश्वामित्र का आगमन हुआ। उन्होंने रावण के अनुचर राक्षस मारीच और सुबाहु से अपने यज्ञ की रक्षा के लिए राजा दशरथ से राम को माँगा। राजा दशरथ को विश्वामित्र की बात स्वीकार न हुई , और उन्होंने ऋषि की सहायता के लिए स्वयं को और अयोध्या की सेना को प्रस्तुत किया।  राजा दशरथ का प्रस्ताव सुनकर विश्वासमित्र क्रोधित हो उठे और वहां से जाने लगे। तब राजगुरु वशिष्ठ ने राजा दशरथ को समझाया कि महर्षि विश्वामित्र जो कह रहे हैं , अवश्य ही उसमें राम का कुछ भला निहित होगा। राजगुरु की बात सुनकर दशरथ ने विश्वामित्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

राम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ चल पड़े। रास्ते में गुरु विश्वामित्र ने उन्हें बाला और अतिबला नामक गुप्त विद्याओं का ज्ञान दिया। तभी राक्षसी तड़का ने उनपर आक्रमण कर दिया। राम ने एक तीक्ष्ण  बाढ़ से उसका वध कर दिया। ताड़का के वध से प्रस्सन होकर विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को कई दिव्यास्त्र प्रदान किये।  इसके बाद पाँच दिन तक यज्ञ बिना किसी विघ्न के चलता रहा।  छटे दिन तड़का के पुत्र मारीच ने अपने साथी सुबाहु और सेना सहित आक्रमण कर दिया। राम ने मारीच पर मानवास्त्र का प्रयोग किया जिससे वह सुदूर दक्षिण में समुद्र के पास जा गिरा। आग्नेय अस्त्र चलाकर राम ने सुबाहु का भी वध कर दिया और वायव्य अस्त्र से सारी सेना का नाश कर दिया । विश्वामित्र का यज्ञ सम्पन्न हुआ।

अहिल्या का उद्धार 

इसके  पश्चात विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर मिथिला नगर की ओर चल पड़े। राह में गौतम ऋषि का वीरान आश्रम दिखाई पड़ा। राम के पूछने पर विश्वामित्र ने उनको गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाई कि , कैसे एक श्राप के फलस्वरूप अहिल्या पत्थर की शिला में परिवर्तित हो गयीं और कहा की राम के स्पर्श से ही उनको मुक्ति मिलेगी। राम ने आश्रम में प्रवेश कर शिला को स्पर्श करके अहिल्या को श्राप मुक्त किया।

सीता से विवाह 

विश्वामित्र राम लक्ष्मण सहित जनकपुरी ( मिथिला नगरी )पहुंचे। राजा जनक ने उनका स्वागत किया। उस समय जनकपुरी में राजा जनक की पुत्री सीता का स्वयंवर आयोजित किया जा रहा था।  जिसकी शर्त थी कि जो सुनाभ
नामक शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा सकेगा , उसी से सीता का विवाह होगा। स्वयंबर में जब बड़े -बड़े राजा महाराजा उस धनुष को तनिक भी हिला न सके , तब गुरु विश्वामित्र के कहने पर राम ने उस धनुष न केवल सरलता से उठा लिया बल्कि उसपर प्रत्यंचा भी चढ़ाने लगे कि तभी भयंकर नाद के साथ धनुष के दो टुकड़े हो गए। धनुष के टूटते ही राजा जनक के हर्ष की सीमा न रही।तभी वहां हाथ में फरसा और धनुष लिए क्रोध से काँपते परशुराम सामने आ खड़े हुए। राजा जनक और सभी राजागण उनका यह रूप देखकर भयभीत हो गए। लक्ष्मण जी का परशुराम से वाद विवाद आरम्भ हो गया। भगवान राम ने बीच में पड़कर न केवल लक्ष्मण जी का बचाव किया वरन अपने वाक चातुर्य से परशुराम जी का ह्रदय भी जीत लिया। भगवान राम से बातचीत के दौरान परशुराम को भगवान राम के विष्णु रूप का आभास हुआ। उन्होंने राम को अपने विष्णु धनुष पर बाण संधान  के लिए कहा।  राम ने बड़ी सहजता से यह कर दिया और बोले , "मुनिवर मैं इस बाण से आपकी अर्जित तप शक्ति और आपकी मन की गति से चलने की शक्ति छीन सकता हूँ। " परशुराम भगवान राम के विष्णु रूप को पहचान गए। उन्होंने राम से क्षमा याचना की कि भले ही उस बाण से उनका अर्जित तप नष्ट कर दें पर उनकी मन की गति से से विचरण की शक्ति न छीनें जिससे वो समय पर महेंद्र पर्वत पर पहुँच सकें और वे भगवान राम का गुणगान करते हुए चले गए।

परशुराम के जाने से राजा जनक ने चैन की साँस ली और ऋषि विश्वामित्र से आज्ञा लेकर यह शुभ समाचार महाराज दशरत को भेजकर उन्हें बारात लाने का निमंत्रण भेज दिया। यह समाचार सुनकर पूरी अयोधया नगरी में प्रसन्ता की लहर दौड़ पड़ी। महाराज दशरत बारात लेकर मिथिला की ओर चल पड़े। वेद मंत्रो के उच्चारण के साथ राम और सीता , लक्ष्मण और उर्मिला , भरत और मांडवी तथा शत्रुघन और श्रुतकीर्ति का विवाह भी सम्पन्न हुआ।

राम को वनवास 

मिथिला से लौटने के बाद भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल कैकेय देश चले गए। उधर दशरथ की उम्र हो चली थी इसलिए उन्होंने अपने मंत्रियों से विचार विमर्श करके राम को युवराज बनाने के घोषणा कर दी। अयोध्यावासियों के हर्ष का ठिकाना न रहा। रानी कैकयी भी राम के राज्याभिषेक से बहुत प्रसन्न थीं। परन्तु मंथरा नामक एक कुबड़ी दासी को राम का राज्याभिषेक नहीं सुहाया। उसने कैकयी को यह कहकर भड़का दिया कि राम के राजा बनने के पश्चात् , कौशल्या राज माता बन जाएंगी और कैकयी को एक दासी के रूप में रहना पड़ेगा। कैकयी मंथरा की बातों मे आ गयी और कोप भवन जा पहुंची। राजा दशरथ को यह समाचार मिला तो उन्होंने जाकर कैकयी से कोप भवन जाने का कारण पूछा। तब कैकयी ने उनको उन दो वचनो की याद दिलाई  जो महाराज दशरथ ने कैकयी को तब दिए थे जब कैकयी ने शंबासुर से इंद्र देव के युद्ध में महाराज दशरथ की सहायता की थी। कैकयी ने अपने पहले वरदान में भरत के लिए राजगद्दी मांगी और दूसरे में राम को 14 वर्ष का वनवास।  राजा दशरथ के लिए यह बहुत असहय था। उन्होंने कैकयी को समझाने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु सब व्यर्थ रहा। जब यह सब भगवान राम को पता चला तो वह सहर्ष ही वन जाने के लिए तैयार हो गए। लक्ष्मण और सीता ने भी राम के साथ वन में जाने का आग्रह किया, जिसे राम ने स्वीकार कर लिया। उन तीनों ने वल्कल वस्त्र धारण कर वन में प्रस्थान किया। मंत्री सुमंत्र उनके रथी बने और अयोध्या वासी उनके रथ के पीछे पीछे चलते रहे। अयोध्या वासियों को एक स्थान पर छोड़ कर राम सुमंत्र के साथ रथ पर आगे बढ़ गए।

निषादराज गुह को जब राम के आने का समाचार मिला तो वे अपने बंधू बांधवो सहित राम का स्वागत करने आ पहुंचे। वह अपने साथ कंद -मूल फल आदि उपहार स्वरुप लाये थे । उनका प्रेम देख कर राम ने उन्हें गले लगा लिया। एक रात वहीं रूककर अगली सुबह राम ने मंत्री सुमंत्र से अयोध्या वापिस लौटने  का आग्रह किया। सुमंत्र वापिस लौट गए। सुमंत्र के लौटने के बाद राम ने गुह से भी विदा ली और गंगा नदी पार करके , भारद्वाज ऋषि के आश्रम होते हुए चित्रकूट पहुंचे। चित्रकूट में मंदाकिनी नदी के किनारे पर्णकुटी बनाकर वे वहीं रहने लगे।

दशरथ का देहांत 

सुमंत्र को अकेले लौटे देखकर दशरथ को बहुत गहरा आघात पहुंचा और उन्होंने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिए। दशरथ के पुत्र वियोग  में प्राण त्यागने के पीछे के एक श्राप की कहानी कुछ इस प्रकार है। श्रवण कुमार नामक एक युवक अपने अंधे माता पिता को तीर्थ यात्रा कराता हुआ सरयू नदी के किनारे पहुंचा। अपने माता पिता को बिठा कर वो उनके लिए पानी लेने सरयू नदी के किनारे पहुंचा। पानी भरते हुए लोटे की आवाज़ को सुनकर वहीं आखेट पर आए  हुए राजा दशरथ ने किसी पशु के पानी पीने की आवाज़ सोच कर शब्दभेदी बाण चला दिया। बाण श्रवण कुमार को आ लगा। अपने बाण से युवक को मरते देख राजा दशरथ को अपनी गलती का एहसास हुआ और वे  श्रवण कुमार से जानकर उनके माता पिता के लिए पानी लेकर गए। अपने पुत्र के स्थान पर किसी और को आया जानकर और दशरथ से सारी बात पता चलने के बाद श्रवण कुमार के माता पिता ने दशरथ को श्राप दिया  कि जिस प्रकार वे पुत्र वियोग में मर रहे हैं उसी प्रकार दशरथ भी पुत्र वियोग में मरेगा। इसके बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए।

भरत मिलाप 

उधर अयोध्या में भरत  को ननिहाल से दूत भेज कर वापिस बुलाया गया। जब अयोध्या पहुँच कर भरत को सारी बात पता चली तो उन्होंने माता कैकयी को बहुत बुरा भला कहा और माता कौशल्या को विश्वास दिलाया कि जो कुछ भी हुआ उसका उन्हें आभास भी न था। पिता के दाह संस्कार के बाद मंत्रियों ने जब भरत से राज गद्दी सँभालने की बात कही तो उन्होंने भरी सभा में घोषणा की कि अयोध्या के राज्य पर केवल राम का अधिकार है और उन्होंने राम को लौटा लाने के लिए चित्रकूट जाने का निश्चय किया।

अगले दिन गुरु वशिष्ठ , माताओं , अयोध्या की चतुरंगिणी सेना और अयोध्या वासियों को लेकर भरत चित्रकूट की ओर चल पड़े। लक्ष्मण ने दूर से ही अयोध्या के ध्वजों को पहचान लिया। लक्ष्मण को लगा कि भरत सेना सहित उनपर आक्रमण के लिए आ रहे हैं। लक्ष्मण भी युद्ध के लिए तत्पर हो गए। राम के समझाने से लक्ष्मण शांत हो गए। थोड़ा निकट आने पर भरत की दृष्टि राम, लक्ष्मण और सीता पर पड़ी। राम को देखते ही भरत का धैर्य छूट गया। वे व्याकुल हो दौड़कर राम के चरणों पर गिर पड़े। राम को भी अपनी सुध -बुध न रही। दोनों भाइयों का प्रेम  अश्रु बनकर बहने लगा। राम ने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया। उसके पश्चात् राम बड़े प्रेम पूर्वक गुरु ,माताओं और अयोध्या वासियों से मिले। माता कैकयी ने अपने व्यव्हार के लिए राम से खेद जताया।  पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर राम बहुत दुखी हुए। भरत सहित  माताओं, गुरुओं और अयोध्या वासियों ने राम से अयोध्या चलने का आग्रह किया पर राम नहीं माने।  भरत  भी अपने हठ पर अड़े रहे। जब राम किसी भी प्रकार लौटने को तैयार नहीं हुए तो भरत ने घोषणा की कि अयोध्या के सिंहासन पर राम की खड़ाऊं रखी रहेंगी और वे स्वयं तपस्वी वेश में एक सेवक की भांति नगर से बाहर नंदी ग्राम में रह कर राज्य भर संभालेंगे। 

अत्रि ऋषि से भेंट 

भरत के लौट जाने के पश्चात् ,काफी समय चित्रकूट में बिता कर राम ने दक्षिण की ओर अपनी यात्रा आरम्भ की। मार्ग में अत्रि ऋषि का आश्रम था। अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया ने सीता माता को दिव्या वस्त्र ,माला और आभूषण दिए ,इनकी विषेशता यह थी की न वे कभी मैले होते थे और न कभी फटते थे।

अगस्त्य मुनि से दिव्यात्र प्राप्ति 

अत्रि ऋषि से विदा लेकर राम दण्डक वन में पहुंचे। वहाँ ऋषि मुनियो ने  राम को बताया की किस प्रकार राक्षस ऋषि मुनियो के यज्ञ में बाधा  डालते थे। तथा राक्षसों द्वारा मारे गए ऋषि मुनियो के कंकाल भी दिखाए। यह सब देख सुनकर राम ने प्रण किया की वे राक्षसों का नाश कर देंगे।  इसके बाद राम अगस्त्य ऋषि के शिष्य सुतिष्ण ऋषि के आश्रम में पहुंचे। सुतिष्ण ऋषि राम , लक्ष्मण और सीता को अगस्त्य मुनि के पास ले गए। अगस्त्य मुनि ने, राम को दिव्य अस्त्र शस्त्र प्रदान किये जिसमें विष्णु से मिला धनुष , ब्रह्मा से मिले अमोघ बाण तथा इंद्र का तरकश था जो कभी बाणों से खाली नहीं होता था। अगस्त्य ऋषि ने उन्हे गोदावरी के तट पर स्तिथ पंचवटी नामक स्थान पर रहने का परामर्श दिया।

पंचवटी में निवास , शूर्पणखा की नाक काटना एवं खर दूषण का वध 

पंचवटी पहुंचकर उन्होंने एक पर्णकुटी बनाई जिसमें वे रहने लगे। तभी वहां रावण की बहन शूर्पणखा आयी और राम के सौंदर्य पर मोहित हो गयी।  राक्षसी रूप छोड़ कर एक सुन्दर स्त्री के रूप में वे राम के पास गयी और उनसे प्रणय निवेदन करते हुए राम के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। राम ने सहजता से उस प्रस्ताव को ठुकराते हुए उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। जब लक्ष्मण ने भी उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया तो शूर्पणखा तिलमिला उठी और अपने वास्तविक रूप में आकर सीता को खाने के लिए दौड़ी यह देख कर लक्ष्मण ने उसपर प्रहार किया और उसकी नाक काट डाली। शूर्पणखा रोते बिलखते अपने सौतेले भाई खर और दूषण के पास पहुंची। उन्होंने अपनी भारी सेना के साथ रामऔर लक्ष्मण पर आक्रमण कर दिया। देखते ही देखते राम ने खर दूषण और उनकी सेना का वध कर दिया। खर दूषण के अंत के साथ दण्डक वन से राक्षसों का डर सदा के लिए दूर हो गया। इसके बाद शूर्पणखा अपने भाई रावण के पास पहुंची। शूर्पणखा की बात सुनकर रावण क्रोध से भर उठा। उसने समझा - बुझाकर शूर्पणखा को भेज दिया और सीता का हरण करने का निश्चय किया।



सीता हरण 

रावण मारीच के पास पहुंचा और उसे सीता हरण की अपने योजना से अवगत कराया। मारीच ने रावण को राम से शत्रुता ना करना की सलाह दी। मारीच की सलाह सुनकर रावण क्रोधित हो उठा जिससे अंततः विवश होकर मारीच रावण की सहायता के लिया तैयार हो गया। योजना अनुसार मारीच सोने का हिरन बनकर राम की कुटिया के आस पास घूमने लगा। सोने का हिरन देख कर सीता ने राम से उसको पकड़ लाने की इच्छा प्रकट की। लक्षमण को सीता की देखभाल के लिए कहकर राम हिरन के पीछे चले गए।  योजनानुसार मारीच उनको कुटिया से बहुत दूर ले गया।  हिरन को हाथ न आता देख, राम ने बाण चलाया। बाण लगने से मारीच अपने वास्तविक रूप में आकर तड़पने लगा और राम की आवाज में चिल्लाया, " लक्ष्मण , लक्ष्मण मुझे बचाओ। " यह देखकर राम असमंजस में पड़ गए और कुटिया की ओर चल पड़े।

उधर कुटिया में लक्ष्मण की लिए राम की पुकार सुनकर सीता व्याकुल हो उठीं। उन्होंने लक्ष्मण को राम की सहायता के लिए जाने की लिए कहा। लक्ष्मण ने सीता को बहुत समझाने का प्रयत्न किया की राम भैया किसी भी चुनौती का सामना करने में सक्षम हैं और इस समय उनका सीता को अकेले छोड़कर जाना उचित न होगा पर सीता ने उनकी एक का सुनी तथा उनको कटु वचन कहने लगीं।  लक्ष्मण , सीता के वचनो से आहात होकर सीता को छोड़कर भैया राम की खोज में चल पड़े। किन्तु जाने से पहले उन्होंने कुटिया के चारों और एक रेखा बनाई और सीता से उस रेखा को पार न करने का आग्रह किया। लक्ष्मण को जाता देख , झाड़ियों की ओट में छुपा रावण सीता हरण के लिए आया किन्तु लक्ष्मण रेखा को पार न कर सका। तब उसने साधु रूप धारण करके बाहर से ही भिक्षा की आवाज लगाई।  द्वार पर भिक्षा के लिए साधु को आया देखकर सीता फल आदि लेकर बाहर आयीं और लक्ष्मण रेखा के अंदर से ही उसे भिक्षा देने लगीं।  रावण ने सीता को रेखा पार करकर बाहर आकर भिक्षा देने की लिए कहा और ऐसा न करने पर उनको और उनके पति श्राप देने के लिए कहने लगा। श्राप के भय से सीता रेखा पार करकर बाहर आ गयीं।  यह अवसर देख रावण ने सीता का हरण कर लिया और उनको लेकर अपने यान में आकाश मार्ग से लंका की ओर चल पड़ा। सीता की पुकार सुनकर मार्ग में गिद्ध जटायु ने रावण पर आक्रमण कर दिया।  परंतु रावण ने जटायु के पंख काट दिया जिससे वन धरती पर जा गिरा। मार्ग में एक पर्वत पर कुछ वानरों को बैठे देखकर सीता ने अपने आभूषण एक पोटली में बांध कर नीचे फेंक दिए। लंका पहुँच कर रावण ने सीता माता को अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा।

सीता की खोज एवं शबरी से भेंट 

उधर मारीच को मारकर कुटिया की ओर लौटते हुए राम ने जब लक्ष्मण को अपनी ओर आता देखा तो उनके ह्रदय में अनिष्ट के विचार आने लगे। जब राम ने लक्ष्मण से उनके पीछे आने का कारण पूछा तो लक्ष्मण ने उन्हें , सीता माता द्वारा कहे गए वचनों से अवगत कराया। दोनों भाई मिलकर शीघ्रता से कुटिया की और चल पड़े। जब वे कुटिया में पहुंचे तो उन्होंने सीता माता को वहां ना पाया। बहुत पुकारने पर भी जब कोई उत्तर न मिला तो वे व्याकुल ह्रदय से सीता माता को इधर उधर खोजने लगे। राम के नेत्रों से अश्रु बहने लगे और वे पागलों की भांति वन के पशु पक्षियों और पेड़ पौधों से सीता माता के विषय में पूछने लगे। बहुत खोजने के बाद भी सीता माता जब कहीं नहीं मिलीं तो वे उनकी खोज में आगे बढ़ गए। थोड़ी ही दूर पर उनकी भेट घायल जटायु से हुई। जटायु ने उन्हें रावण द्वारा सीता के हरण के विषय में बताया और यह भी बताया कि सीता माता का हरण करके रावण उनको दक्षिण दिशा में ले गया है। यह कहकर जटायु ने प्राण त्याग दिए। राम ने जटायु का अंतिम संस्कार किया और दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े। सीता माता की खोज में आगे बढ़ते हुए हुए राम और लक्ष्मण मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी के पास पहुंचे। मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी राम की प्रतीक्षा में ऑंखें बिछाए बैठी थी। वह  राम को देखकर उनके चरणों में गिर गयी। उसके मन की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वह अपने प्रभु राम को खिलाने के लिए बेर ले आयी। वह प्रेम वश चख चख कर राम को केवल मीठे बेर ही देने लगी।  राम ने बहुत ही प्रेम पूर्वक शबरी के जूठे बेर खाये। शबरी ने राम को सीता की खोज के लिए ,  ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर सुग्रीव से मिलने की सलाह दी।  शबरी के सलाह मानकर राम ऋष्यमूक पर्वत  की ओर चल पड़े।

हनुमान एवं सुग्रीव से भेंट 

ऋष्यमूक पर्वत पर रहने वाले सुग्रीव ने जब दो युवको को धनुष -बाण लिए पर्वत की ओर आते देखा तो उसे शंका हुई कि उसके भाई बाली ने ही उसे मारने के लिए उन्हें भेजा है। उसने हनुमान को उन दोनों वीरो का परिचय प्राप्त करने के लिए भेजा।हनुमान वेश बदल कर राम और लक्ष्मण के पास पहुंचे। हनुमान ने उनसे उनका परिचय पूछा।प्रत्युत्तर में लक्ष्मण ने बताया की वे अयोध्या के राजा दशरत के पुत्र राम और लक्ष्मण और इस समय वनवास भोग रहे है। राक्षसों के राजा रावण ने राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया है और वे उनको ढूंढने के लिए सुग्रीव की मदद चाहते हैं । हनुमान उनके उत्तर से संतुष्ट होकर अपने असली रूप में आ गए  और उनको आकाश मार्गः से सुग्रीव के पास ले आये। सुग्रीव के पास पहुंचकर हनुमान ने सुग्रीव को राम और लक्ष्मण का परिचय और उनके आने का कारण बताया। सुग्रीव ने राम को आभूषणों की वह पोटली दिखाई जो सीता ने रावण के यान में से नीचे गिराई थी। राम उन आभूषणो को पहचान कर शोकाकुल हो उठे। सुग्रीव ने राम को धीरज करवाया और मदद करने का आश्वासन दिया। तब राम ने सुग्रीव से उसके कष्टों के बारे में पूछा। सुग्रीव ने बताया कि किष्किंधा  का राजा बाली उसका बड़ा भाई है। एक बार एक मायावी राक्षस बाली को युद्ध के लिए ललकार कर गुफा में  घुस गया। बाली भी राक्षस के पीछे गया और  सुग्रीव को बाहर  खड़े रह कर प्रतीक्षा करने के लिए भी कह गया। एक महीने बाद गुफा में से रक्त की धारा बहने लगी। बाली  को मरा जान , राक्षस के भय से वो गुफा के द्वार पर  एक बड़ा पत्थर रखकर कर वापस लौट आया। उस परिस्तिथि में मन्त्रियों ने उसे किष्किंधा का राजा घोषित कर दिया।  वास्तविकता में बाली जीवित था। बाली किसी तरह शिला हटा कर नगर में आया तो  सुग्रीव वहाँ का राजा बना देखकर क्रोध से लाल -पीला हो गया। बाली ने सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया और उसकी स्त्री को भी उससे छीन लिया। अब वह सुग्रीव के प्राण लेना चाहता है। उससे बचने के लिए ही वह इस ऋष्यमूक पर्वत पर रह रहा है। मतंग ऋषि के श्राप के कारण बाली इस पर्वत पर नहीं आ सकता।

बाली वध 

सुग्रीव की बातें सुनकर राम ने कहा ",मैं एक ही बाण से बाली का वध कर दूंगा और तुम्हें तुम्हारा राज्य वापिस दिलवाऊंगा।" सुग्रीव को राम की बात पर विश्वास नहीं हुआ और उसने राम को बताया कि बाली को वरदान प्राप्त है की जो भी युद्ध में उससे लड़ेगा उसकी आधी शक्ति बालि के पास चली जाएगी। राम ने सुग्रीव को अपने बल का परिचय देते हुए एक हे बाण से सात वृक्षों को काट गिराया सुग्रीव  को राम की शक्ति पर विश्वास हो गया।

अगले दिन योजना अनुसार सुग्रीव ने बालि को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में मल्ल युद्ध होने लगा। राम पेड़ों के पीछे धनुष पर बाण का संधान कर खड़े थे , परन्तु सुग्रीव और बाली की शक्ल इतनी मिलती थी की राम बाली और सुग्रीव में अंतर न कर सके जिस कारण बाण ना चला सके। शीर्घ ही बाली सुग्रीव को मारने लगा और सुग्रीव किसी तरह अपने प्राण बचाकर ऋष्यमूक पर्वत पर वापिस आ गया। राम ने सुग्रीव को बाली का वध न करने का कारण बताया और नागपुष्पी की माला सुग्रीव के गले में डाल दी और फिर से बाली को युद्ध के लिए ललकारने को कहा। सुग्रीव ने पुनः बाली को ललकारा। बाली उस समय अपने पत्नी तारा के साथ अंतःपुर में था इतनी जल्दी सुग्रीव की दुबारा ललकार सुनकर तारा को कुछ संदेह हुआ। उसे राम लक्ष्मण के दंडकवन में होने का ज्ञान था। उसने बाली को सुग्रीव और राम लक्ष्मण की संभाविक मित्रता के बारे में बता कर सावधान रहने को कहा। पर बाली ने तारा की न मानी और सुग्रीव से युद्ध के लिए चल पड़ा। दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा नागपुष्पी की माला के कारण राम बाली को पहचान पाए और उन्होंने उसपर बाण छोड़ दिया। बाण बाली की छाती में लगा और वे गिर कर तड़पने लगा तब राम उसके सामने आ गए। बाली ने राम से पूछा ,"मैंने आपका क्या बिगाड़ा था। आपने इस प्रकार का अधर्म क्यों किया ?" तब राम ने कहा कि जिसने अपने छोटे भाई की पत्नी को बल पूर्वक अपने पास रखा हो उसको मारकर मैंने धर्म की रक्षा ही की है। इसके बाद राम ने सुग्रीव को किष्किंधा का राजा घोषित कर दिया। 

सीता की खोज 

सुग्रीव ने राम को वर्षा ऋतु की समाप्ति में माता सीता की खोज का वचन दिया और किष्किंधा चला गया परन्तु जब शरद ऋतु तक भी सुग्रीव नहीं आया तो राम ने लक्ष्मण को किष्किंधा भेज कर सुग्रीव को उसका वचन याद दिलाने को कहा। लक्ष्मण बहुत क्रोध में किष्किंधा पहुंचे। लक्ष्मण को क्रोध में देख कर सुग्रीव भयभीत हो उठा। उसने लक्ष्मण से क्षमा मांगी तथा मंत्रियों को सारी वानर सेना एकत्रित करने का आदेश  दिया।  तब सुग्रीव हनुमान सहित कुशल वानरों के एक बड़े दल को लेकर राम के पास पहुंचा। उसने दल को चार भागों में बाँट दिया और चारो दलों को चारो दिशाओं में जाने का आदेश दिया और कहा कि एक माह के भीतर वे माता सीता को खोज कर उनका पता लगा कर आएं। दक्षिण दिशा को जाने वाले दल में अंगद ,हनुमान ,नल,नील, और जामवंत थे। राम ने हनुमान को अपनी अंगूठी देते हुए कहा की इस निशानी को देख कर सीता उन्हें पहचान जाएंगी। दक्षिण दिशा वाला दल नदी ,तालाब और पर्वतों को पार करते हुए समुन्द्र के किनारे जा पहुंचा ,  तभी वहां हनुमान की नज़र एक गिद्ध पर पड़ी।  परिचय का आदान प्रदान होने पर उसने अपना नाम संपाती बताया जब हनुमान ने उसे रावण द्वारा जटायु के मारे जाने के विषय में बताया तो वह बहुत दुखी हुआ और उसने हनुमान को बताया की जटायु उसका छोटा भाई था और उसने रावण को एक स्त्री का हरण करआकाश मार्ग से ले जाते हुए देखा था। वह स्त्री "हे राम हे लक्ष्मण" चिल्ला रही थी। वह अवश्य ही सीता होगी। रावण उन्हें लंका ले गया है।  सौ योजन का समुन्द्र पार कर लंका जाकर सीता का पता लगाया जा सकता है। सम्पाती की बात सुन कर सभी लोग चिंता में पड़ गए कि समुन्द्र कैसे पार किया जाये। जामवंत जानते थे की हनुमान शिव जी का अवतार है और असीमित शक्तियों के स्वामी है परन्तु एक श्राप के कारण उनकी शक्ति बंधी हुयी है , जो कि याद दिलाने पर वापस आ सकती है। जब जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति का याद दिलायी तो वे खड़े हो गये।  उन्होंने अपने आकार  का विस्तार किया और एक पर्वत पर चढ गए जिससे की वह एक ही छलांग में समुन्द्र पार  कर सकें।

हनुमान द्वारा समुन्द्र लांघना 

उन्होंने पवन देवता का स्मरण कर छलांग लगा दी और लंका की ओर उड़ गए। रास्ते में  मैनाक पर्वत ने उसने कुछ देर विश्राम करने का अनुरोध किया। मैनाक पर्वत को मना कर हनुमान आगे की ओर उड़ गए। आगे नागमाता  सुरसा ने राक्षसी के रूप में उनका रास्ता रोक लिया हनुमान ने सुरसा से उन्हें आगे जाने देने का अनुनय विनय किया परन्तु सुरसा न मानी और उसने कहा की हनुमान को उसके मुँह में जाना ही पड़ेगा और यह कह कर उसने अपना मुँह और बड़ा खोल दिया। ये देख हनुमान जी ने भी अपना रूप विस्तार किया सुरसा ने भी अपना मुँह सौ योजन तक खोल दिया तब हनुमान जी अपना अतिसूक्ष्म रूप धर कर सुरसा के मुँह में जाकर वापस आ गए। यह देख सुरसा अपने वास्तविक नागमाता के रूप में आ गयी और हनुमान की बुद्धि से प्रस्सन होकर उसने उनको  मनोरथ पूरे होने का वरदान दिया। हनुमान आगे चल पड़े।  सिंहिका  नामक एक राक्षसी ने उनकी छाया पकड़ कर उनको रोक लिया।  वो पक्षियों की छाया पकड़ कर उनको खा जाती थी। उसने हनुमान को भी खाने का प्रयत्न किया तो हनुमान ने उसका वध कर दिया और आगे उड़ चले। हनुमान समुन्द्र पार कर लंका के द्वार पर पहुंचे।

हनुमान की अशोक वाटिका में सीता से भेंट 

लंका के द्वार पर लंकिनी नमक एक राक्षसी पहरा दे रही थी है हनुमान ने अतिसूक्ष्म रूप धर कर लंका में घुसने का प्रवेश किया ,  परन्तु लंकिनी ने उन्हें देख लिया। हनुमान ने अपनी मुट्ठी के प्रहार से उसे धराशायी कर दिया।  तब लंकिनी को ब्रम्हा जी की बात स्मरण हो आयी की जब कोई वानर उसे मुष्टिका प्रहार से घायल करके लहुलुहान कर दे तो वो समझ जाए कि लंका का अंत समय आने वाला है। हनुमान ने लंका में प्रवेश किया। वे एक भवन से दूसरे भवन में जाकर सीता माता की खोज करने लगे। इसी क्रम में उन्होंने रावण को उसके भवन में सोया हुआ देखा और एक दूसरे भवन में मंदोदरी को सोते देख कर उनके सीता होने का आभास हुआ किन्तु जल्दी ही  उनको यह एहसास हुआ कि सीता रावण की कैद में इस प्रकार निश्चिंत होकर नहीं सो सकतीं। हनुमान आगे बढ़ चले। ढूंढ़ते ढूंढ़ते वे अशोक वाटिका जा पहुंचे जहा एक स्त्री वृक्ष के नीचे बैठी थी और उसको भयंकर राक्षसियों ने घेर रखा था। हनुमान को लगा की वे ही माता सीता हैं और वे उसी वृक्ष के पत्तो में छुप कर सीता माता से मिलने का मौका ढूंढने लगे। तभी वहां रावण मंदोदरी सहित आया और तरह तरह से सीता माता को डराने लगा। सीता ,माता ने उसे बहुत लताड़ा तथा श्री राम प्रभु के बाणो की तीक्ष्णता और उनके हाथों रावण के होने वाले सर्वनाश की बात कही। रावण सीता माता को एक माह की अवधि में उसकी बात मान लेने की चेतावनी देकर तिलमिलाता हुआ चला गया। रावण के जाने के बाद त्रिजटा नामक एक प्रधान राक्षसी ने सभी राक्षसियों को बुला कर बताया की उसने लंका के विनाश का एक स्वपन देखा है ,कहीं वह स्वपन सच न होजाये इसी आशंका से उनको सीता को डराना धमकाना नहीं चाहिए । यह सुन कर सभी राक्षसियाँ सीता से दूर चली गयीं। यही सही मौका जान हनुमान जी पेड़ पर से ही भगवान राम की कथा गाने लगे।  सीता माता कथा सुन कर आश्चर्यचकित थीं , तब हनुमान पेड़ से उतर कर सीता माता के सामने आ गए उन्हें देख सीता के मन में ये संदेह हुआ की कहीं ये भी रावण की ही चाल तो नहीं तब हनुमान ने उन्हें राम की दी हुयी अंगूठी दिखाई जिसे देख कर सीता का संशय जाता रहा।  हनुमान ने सीता को राम का समाचार सुनाया। उह्नोने सीता को समझाया कि जिस प्रकार आप राम के वियोग में दुखी है उसी प्रकार राम  भी आपकी चिंता में दुखी रहते है। सीता ने अपनी चूड़ामड़ी उतारकर हनुमान को दी और कहा की इसे देखते ही राम समझ जायेंगे की तुम मुझसे मिले थे।

अक्षयकुमार का वध एवं हनुमान मेघनाद युद्ध

इसके पश्चात हनुमान भूख शांत करने के लिए अशोक वाटिका से फल खाने लगे तथा शत्रु के बल पराक्रम की जाँच करने के लिए वाटिका के पेड़ उखाड़ -उखाड़ कर फेंकने लगे। यह देख वाटिका के प्रहरी उनको पकड़ने आए तो उनमें से कुछ तो हनुमान से युद्ध में मारे गए और कुछ अपनी जान बचाकर भाग गये।  उह्नोंने जाकर रावण को अशोक वाटिका एक वानर के आने की सूचना  दी। रावण ने हनुमान को पकड़ने के लिए एक बड़ा सैन्य दल भेजा। परन्तु उस दल के सभी राक्षस भी हनुमान के साथ संघर्ष में मारे गए। तब रावण अपने पुत्र अक्षयकुमार को सेना सहित हनुमान को पकड़ने के लिए भेजा। हनुमान ने उसका भी वध कर दिया। इससे रावण बहुत क्रोधित हुआ और उसने अपने महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत मेघनाद को हनुमान को पकड़ने के लिए भेजा। इंद्रजीत भी जब भयंकर युद्ध में हनुमान को पकड़ने में असफल रहा तब उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। हनुमान ने ब्रह्मास्त्र का मान रखते हुए उसमे बंध जाना स्वीकार किया।  मेघनाद के आदेश पर राक्षसों ने हनुमान को राजसभा में प्रस्तुत किया। रावण ने हनुमान से उनका परिचय और आने का कारण पूछा। उह्नोने रावण को  बताया की वो वानर राज सुग्रीव के सेवक और भगवान श्री राम के दूत हैं। उह्नोने रावण से सीता को छोड़ने के लिए कहा अन्यथा युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा। यह सुनकर रावण क्रोध से तिलमिला उठा और उसने अपने सैनिकों को हनुमान का वध करने का आदेश दिया। तब विभीषण ने रावण से कहा की दूत अवध होता है इसलिए रावण को उसका वध नहीं करना चाहिए तथा कोई और सज़ा देकर हनुमान को छोड़ने को कहा। तब रावण ने सैनिकों को तेल में भीगा कपड़ा हनुमान की पूँछ में बांधकर आग लगाने का आदेश दिया।

लंका दहन 

रावण का आदेश पाकर राक्षस तेल में डुबोए कपड़े हनुमान की पूँछ में बाँधने लगे। हनुमान ने अपनी पूँछ इतनी लंबी की , कि ढेर के ढेर कपड़े  पूँछ में लिपट गए। हनुमान को लंका में गली -गली घुमाया जाने लगा। हनुमान प्रसन्न थे कि इस बहाने उन्हें पूरी लंका नगरी देखने का अवसर मिल रहा था। पूँछ में आग लगते ही ,हनुमान ने अपने शरीर का आकार छोटा कर लिया और राक्षसों की पकड़ से छूट निकले। वे एक भवन से दूसरे भवन ,एक अटारी से दूसरी अटारी पर छलाँग लगाने लगे और अपने जलती पूँछ से भवनों में आग लगाने लगे। सारा नगर धू - धू करके जलने लगा। चारो और हाहाकार मच गया। देखते ही देखते सोने की लंका जलकर राख हो गई। इसके बाद हनुमान ने समुंद्र में अपने पूँछ की आग बुझाई। अपने पूँछ की आग बुझाकर हनुमान फिर से छोटे रूप धारण कर सीता के सामने जा पहुँचे। हनुमान ने सीता को प्रणाम किया और उन्हें अनेक प्रकार से धीरज देकर उनसे विदा ली।

हनुमान की लंका से वापसी 

अरिष्ट पर्वत पर चढ़कर हनुमान ने सिंह के समान गर्जना करते हुए छलांग लगाई और तीव्र गति से समुद्र के उत्तरी किनारे की ओर उड़ चले। हनुमान को आते देख अंगद आदि वानरों ने राम और सुग्रीव की जय जयकार करनी शुरू कर दी। हनुमान ने तट  पर उतरकर उनको लंका का सारा हाल बताया। सभी , वानरराज सुग्रीव और राजा राम के पास चल दिए। हनुमान ने सीता की दशा का वर्णन श्री राम से किया तथा सीता द्वारा दी गयी चूड़ामड़ी उनको दिखाई। सीता की कुशलता जानकर राम ने गदगद होकर हनुमान को गले लगा लिया।  चूड़ामड़ी देखकर राम के नेत्रों से अश्रु बहने लगे। राम को इस प्रकार शोक करते देखकर हनुमान ने उन्हें धीरज बँधाया। सुग्रीव ने सेना को लंका की और प्रस्थान करने का आदेश दिया।

रावण द्वारा विभीषण का अपमान 

देखते ही देखते वानरो और भालुओं की एक बड़ी सेना दक्षिण के समुद्र तट पर एकत्रित हुई। राम की सेना के महेंद्र पर्वत पर पहुँचने का समाचार सुनकर लंकावासियों में खलबली मच गई। जिस दिन से हनुमान लंका जलाकर गए थे , तब से राक्षशों में भय सा समा गया था। वे सोचते थे की जिनका एक दूत इतना वीर और बलशाली है और अकेले ही इतना विनाश कर सकता है , तो उसके स्वामी कैसे होंगे और उनके आगमन पर क्या होगा। लंका वासियो के मन की बात विभीषण के मन तक भी पहुंची। अगले दिन सभा में जब रावण अपने पुत्रो , मंत्रियो ,और सेनापतियों के साथ नगर की सुरक्षा के प्रबंध और राम से लोहा लेने के विषय में चर्चा कर रहा था , तब विभीषण ने रावण को सलाह दी कि वह राम से बैर मोल न ले और सीता को राम को लौटकर नगर एवं नागरिको की रक्षा करे। यह सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने विभीषण का त्रिस्कर करते हुए अपशब्द कहे।

विभीषण का राम की शरण में आना 

रावण द्वारा अपमानित होकर विभीषण अपने चार मंत्रियो सहित भगवान् श्री राम की शरण में चला गया। सुग्रीव को उस पर संदेह था की शायद वह रावण का गुप्तचर हो। परन्तु राम ने सुग्रीव को समझाया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है। विभीषण हमारी शरण में आया है ,हम उसे जरूर शरण देंगे। सुग्रीव भी राम की बात से सहमत हो गया। विभीषण ने राम से मिलकर उनको रावण की कई मार्मिक बातें बताईं।



समुन्द्र पर सेतु बांधना 

अब वानर सेना के सामने यह समस्या थी कि समुद्र कैसे पार किया जाए। सबने मिलकर तय किया कि पहले समुद्र से ही मार्ग दे देने की प्रार्थना की जाये। राम तीन दिनों तक उपवास रखकर समुद्र किनारे कुशा बिछाकर समुद्र से रास्ता देने की प्रार्थना करते रहे। जब समुद्र पर उनकी प्रार्थना का कोई असर नहीं हुआ तो राम क्रोधित हो उठे और उह्नोने समुद्र को सुखा देने के लिए धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ा दिया। यह देख समुद्र मानव रूप में उनके सामने प्रकट हुआ तथा उनसे क्षमा माँगने लगा। समुद्र ने राम को बताया कि उनकी सेना में नल  और नील नाम के दो वानर ऐसे हैं ,  जिनके हाथ  लगने से पत्थर पानी पर तैरेंगे और कहा कि राम कृपया नल और नील की सहायता से उस पर पुल बाँधें। समुन्द्र ने राम से बाण को एक ऐसी दिशा में छोड़ने के लिए कहा जहां दुष्ट लोग रहा करते थे । राम ने समुद्र का आग्रह स्वीकार किया। उनके बाण से उस क्षेत्र में दुष्टों का नाश हो गया। नल और नील ने समुद्र पर पुल बनाना शुरू किया। बाकी वानर भालू भी राम का नाम लिखकर पानी में पत्थर फैंकने लगे। आश्चर्य जनक रूप से वे पत्थर भी पानी पर तैरने लगे। शीघ्र ही लंका तक का पुल बँधकर तैयार हो गया। वानर सेना पुल  की सहायता से समुद्र पार कर लंका पहुँच गयी।



रावण द्वारा राम की सेना में गुप्तचर भेजना 

राम की सेना को लंका के द्वार पर आया देख रावण हैरान रह गया। उसने राम की शक्ति का पता लगाने के लिए शुक और सारण नाम के दो गुप्तचरों को भेजा। वे दोनों वानर रूप में राम की सेना में पहुँच गए लकिन विभीषण ने उनको पहचान लिया और उनको पकड़ कर राम के पास ले गए। राम ने उनका परिचय पूछा तो उह्नोंने साफ़ साफ़ अपना नाम और आने का उद्शेय बता दिया। राम ने मुस्कुराकर शुक और सारण को विभीषण की सहायता से और भी जानकारी ले लेने को कहा। यह कहकर राम ने विभीषण से दोनों को छोड़ देने के लिए कहा। शुक और सारण ने वापस  पहुंचकर  रावण के सामने राम की बहुत प्रशंसा की। जिसे सुनकर रावण बहुत क्रोधित हुआ। उसके बाद रावण उन्हें महल की सबसे ऊँची अटारी पर ले गया , जहा से राम की सेना का दृश्य  बिलकुल साफ दिखाई देता था। रावण ने उन्हें राम की सेना का परिचय देने को कहा। शुक और सारण  ने उन्हें राम की सेना के सभी वीरो की जानकारी दी। उह्नोने रावण को विभीषण के राज्याभिषेक के बारे में भी बताया। 

अंगद का धरती में पैर जमाना 

अगले दिन सुबह राम ने अपनी सेना को चार भागो में बांटा और प्रतयेक दाल को लंका के एक -एक द्वार पर आक्रमण करने का आदेश दिया। युद्ध छेड़ने से पहले राम ने अंतिम बार शांति का का प्रयास किया और अंगद को दूत बनाकर लंका जाने का आदेश दिया। राम ने अंगद से कहा की वह जाकर एक बार फिर रावण को समझाए कि सीता को लौटा देने से ये युद्ध टाला जा सकता है। अंगद वायु मार्ग से सीधा लंका रावण की राज्यसभा में जा पहुंचे।  उन्होंने रावण को अपना परिचय दिया तथा राम का सन्देश सुनाया। रावण ने अंगद को धिक्कारते हुए कहा कि जिसने उसके पिता का वध कर दिया वह ह उसी का पक्ष ले रहा है। यदि वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहता है तो उसे रावण का पक्ष लेना चाहिये। इसके पश्चात् रावण ने अपने सामने राम की शक्ति को तुच्छ बताया जिससे क्रोधित होकर अंगद ने भूमि पर अपना पैर जमाया और कहा , "दुष्ट रावण श्री राम प्रभु का युद्ध में सामना करना तो दूर , तू या तेरी सभा में से कोई भी मेरे इस पैर को भूमि पर से उठा सके तो ही में तेरी  शक्ति को मानूंगा।" इसके बाद मेघनाथ सहित रावण के सभा के सभी सदस्यों ने अंगद का पैर उठाने की कोशिश की परन्तु कोई भी सफल न हो सका। अंत में स्वयं रावण प्रयास करने आया तब अंगद ने अपना पैर उठाते हुए रावण से कहा ,"मूर्ख यदि पैर ही पड़ना है तो प्रभु श्री राम के पड़। हो सकता है वो तुझे क्षमा कर दें।  इसके बाद अंगद आकाश मार्ग से उड़ कर वापस आ  गया और राज्य सभा की सभी बातें विस्तार से राम को बताईं। शांति प्रयास विफल होने के पश्चात युद्ध निश्चित हो गया।

युद्ध आरम्भ और राम और लक्ष्मण का नागपाश में बंधना 

राम ने लंका पर आक्रमण  करने का आदेश दिया। वानर सेना ने चारो द्वारों से लंका पर चढाई कर दी। आक्रमण के उत्तर में रावण ने द्वार खोलने का आदेश दे दिया और उसकी चतुरंगिणी सेना वानर सेना पर टूट पड़ी। वानर राक्षसों पर वृक्ष और पत्थरों  की वर्षा करने लगे। वे अपने दांतो और नाखूनों से राक्षसो पर प्रहार करने लगे और परकोटो पर चढ़कर राक्षसो को उठाकर नीचे फेंकने लगे। राक्षस गदाओं , शूल और फरसों से आक्रमण कर रहे थे।  दोनों पक्षों में घमासान युद्ध होने लगा। शाम होने लगी तो मेघनाद ने राक्षसों की ओर से भयंकर आक्रमण किया। वह अदृश्य होकर युद्ध करने लगा। उसने नाग बाण चलाए जिससे आहत होकर राम -लक्ष्मण बेहोश होकर गिर पड़े। वानर सेना में कोहराम मच गया। मेघनाद विजयध्वनी करता हुआ रावण के पास पहुंचा और उसे राम लक्ष्मण के मारे जाने का समाचार दिया। राम - लक्ष्मण को नागपाश में बंधा देख हनुमान समझ गए कि इस नागपाश की तोड़ केवल पक्षीराज गरुण के पास है। हनुमान जी ने गरुण के पास जाकर उनसे राम और लक्ष्मण का नागपाश खोलने की प्रार्थना की।  गरुण ने आकर राम -लक्ष्मण को नागपाश से मुक्ति दिलाई। वानर सेना में ख़ुशी की लेहेर दौड़ उठी। राम लक्ष्मण के स्वस्थ  होने का समाचार सुनकर रावण चिंतित हो उठा। उसने धूम्राक्ष को विशाल सेना लेकर भेजा। हनुमान ने धूम्राक्ष को मार गिराया। फिर वज्रदंष्ट्रा मैदान में आया। अंगद ने उसका वध कर दिया।  फिर रावण ने अकम्पन को युद्ध के लिए भेजा।  हनुमान ने एक बड़े वृक्ष से कुचल कर उसका वध कर दिया। अकम्पन के मारे जाने का समाचार सुनकर रावण बहुत क्रोधित हो उठा और उसने अपने सेनापति प्रहस्त्र को युद्ध के लिए भेजा। नील और प्रहस्त्र में घनघोर युद्ध हुआ अंततः नील ने प्रहस्त्र का वध कर दिया।

रावण का युद्ध में आगमन 

प्रहस्त्र के वध से व्याकुल रावण बहुत सारे राक्षस वीरों के साथ युद्ध क्षेत्र में आ पहुँचा। उसे देखते ही सुग्रीव ने बड़ी सी शिला उठाकर रावण पर फेंकी । रावण ने अपने बाणों से उसके टुकड़े -टुकड़े कर दिए।  सुग्रीव उसके बाणों  से मूर्छित हो गया। वानर सेना में हाहाकार मच गया। यह देख हनुमान और लक्ष्मण रावण से युद्ध करने के लिए आगे आये। हनुमान ने रावण को ऐसा मुक्का मारा की रावण के पैर डगमगा गए।  वह हनुमान की प्रशंसा किये बिना न रह सका। फिर लक्ष्मण और रावण में युद्ध शरू हो गया। दोनों महाबली एक दूसरे पर भयंकर आक्रमण करने लगे। कभी लक्ष्मण का पलड़ा भारी होता तो कभी  राम का। यह देख राम स्वयं रावण से युद्ध करने के लिए आगे आये। उह्नोंने अपने अर्धचन्द्र बाण के प्रहार  से रावण का मुकुट और रथ काट डाला। रावण का मुकुट धरती पर जा गिरा। राम ने कहा ,"रावण जाओ मैं तुम्हें छोड़ता हूँ , क्योंकि मैं निहत्ते और निशस्त्र पर बाण नहीं चलाता। अस्त्र शस्त्र लेकर नए रथ में बैठकर युद्ध के लिए आना।" निराशा में डूबा रावण लंका लौट गया।

कुम्भकरण वध 

लंका में पहुंचकर चिंता में डूबा रावण राम को पराजित करने के तरीके सोचने लगा।  तभी उसे अपने भाई कुम्भकरण की याद आई।  कुम्भकरण  एक विशाल काया वाला बलशाली योद्धा था। वह छह महीने के बाद एक दिन के लिए ही जागता था और खा पी कर फिर सो जाता था। रावण ने बहुत सारे खाने पीने के सामान के साथ राक्षसो की टोली उसे जगाने  के लिए भेजी।  उह्नोंने उसके कान पर ढोल नगाड़े बजाकर उसके शरीर को झकझोरकर किसी तरह उसको जगाया और उससे रावण के पास चलने का अनुरोध किया। वह रावण के पास पहुंचा और उसे जगाए जाने का कारण पूछने लगा।  रावण ने उसे सारा हाल सुनाया और उससे युद्ध में जाने के लिए कहा। तब कुम्भकरण ने रावण से कहा कि जनकपुत्री सीता का हरण करके उसने बड़ी भूल की है। बुरे काम का बुरा फल ही होता है। जो किया है उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा। कुम्भकरण का उपदेश सुनकर रावण क्रोधित हो गया और बोला कि उपदेश छोड़कर राम को पराजित कर मुझे संकट से मुक्ति दिलाओ। कुम्भकरण ने रावण को धीरज बंधाया और युद्ध के लिए चल दिया। विशालकाय कुम्भकरण हाथ में त्रिशूल लिए रण भूमि में पहुंचा।क्रोध से भरा कुम्भकरण वानरों को रोंदने लगा। वानर कुम्भकरण पर बड़े बड़े वृक्ष और शिलाऐं फेकते पर कुम्भकरण पर उसका जरा सा भी प्रभाव नहीं पड़ता। अंततः वानर भयभीत होकर भागने लगे। तब हनुमान , अंगद और सुग्रीव ने कुम्भकरण को रोकने की कोशिश की। परन्तु वे भी विफल रहे। बड़े बड़े वानर योद्धाओं की यह दशा देखकर लक्ष्मण  कुम्भकरण से युद्ध करने लगे। लक्ष्मण ने उसपर तीखे बाणों की बौछार कर दी। कुम्भकरण लक्ष्मण की वीरता से बड़ा प्रभावित हुआ और उनकी प्रशंसा करते हुए बोला कि वह लक्ष्मण से नहीं राम से युद्ध करना चाहता है। तब राम युद्ध के लिए आगे आए।  दोनों में भयंकर लड़ाई होने लगी। तब राम ने एक दिव्य बाण चला कर उसकी दायनी भुजा काट दी। क्रोधित हो कुम्भकरण अपने बाये हाथ से एक विशाल वृक्ष उखाड़ कर राम को मारने दौड़ा। राम ने अपने बाण से उसकी दूसरी भुजा भी काट दी। भयानक गर्जना करता हुआ कुम्भकरण मुँह फाड़े राम को खाने दौड़ा। राम ने बाण से उसके दोनों पैर भी काट डाले। कुम्भकर्ण धरती पर गिर पड़ा तब राम ने एक बाण चला कर उसकी गर्दन काट डाली।

लक्ष्मण पर मेघनाद का शक्ति प्रहार 

कुम्भकर्ण के वध से रावण निराशा के अंधकार में डूब गया। तब रावण के पुत्र त्रिशरा ,देवान्तक और नरान्तक ने रावण को धीरज  बनाया और युद्ध भूमि में जाने की आज्ञा मांगी। नरान्तक अंगद से घनघोर युद्ध में मारा गया। हनुमान ने देवान्तक का वध कर दिया। त्रिशरा भी हनुमान के हाथों मारा गया। अब अतिकाय नामक राक्षस युद्ध के लिए सामने आया। वे कुम्भकर्ण की भांति विशाल और बलशाली था। उसे ब्रह्मा से कई शक्तियां प्राप्त थीं। लक्ष्मण ने अतिकाय को रोका। लक्ष्मण और अतिकाय में युद्ध होने लगा। ब्रह्मा की शक्तियों के कारण उसपर लक्ष्मण के बाणों का कोई असर नहीं हो रहा था । यह देख लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र चलाकर अतिकाय का वध कर दिया। पुत्रों  और बंधु - बांधवों का अंत देखकर रावण पूरी तरह टूट गया। रावण को शोक मग्न देखकर उसका पुत्र मेघनाद उसे समझाने लगा और हौसला देते हुए बोला ," पिताजी ,मेरे रहते आप चिंता क्यों करते हैं ? मैं  शीग्र ही राम लक्ष्मण को मार दूंगा। " मेघनाद की शक्ति से रावण अच्छी तरह परिचत था। उसने मेघनाद को युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी। रथ पर चढ़कर, दिव्य अस्त्र -शास्त्रों से सुसज्जित होकर मेघनाद रणक्षेत्र में पहुंचा। मेघनाद का लक्ष्मण से युद्ध आरम्भ हो गया। तब मेघनाद ने लक्ष्मण के ऊपर अमोघशक्ति का उपयोग किया। शक्ति के प्रभाव से लक्ष्मण मूर्छित हो गए। लक्ष्मण को मूर्छित देख सभी चिंचित हो उठे। किसे को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।  लक्ष्मण को मूर्छित देख राम का रो रो कर बुरा हाल था। तब विभीषण की सलाह से हनुमान उड़कर लंका में गए और लंका से सुषैण वैध को उसके घर सहित उठा ले आये। विभीषण ने सुषैण वैध से लक्ष्मण का उपचार करने की प्रार्थना की। लक्ष्मण को शत्रु जान सुषैण वैध ने उपचार करने से मना कर दिया। तब राम ने सुषैण वैध को वैध धर्म याद दिलाकर उपचार करने की प्रार्थना की। तब सुषैण वैध ने राम की बातो से प्रभित होकर कहा कि यदि सूर्य उदय से पहले हिमालय से संजीवनी बूटी  लायी जा सके तो लक्ष्मण का उपचार का संभव है। यह सुन हनुमान ने संजवानी बूटी  की पहचान पूछी। सुषैण वैध ने हनुमान को बताया कि संजवानी बूटी चमक रही होगी। यह सुन हनुमान हिमालय की ओर उड़ चले । उधर जब रावण को जब यह बात पता चली तो उसने हनुमान को रोकने के लिए कालनेमि नामक राक्षस को भेजा। कालनेमि अपनी माया से हनुमान के रास्ते में एक पर्वत पर साधु बनकर बैठ गया और राम नाम का जाप करने लगा। हनुमान राम नाम का जाप सुनकर उसके पास पहुंचे। उसने हनुमान को अपनी बातों के झांसे में फंसा लिया और थोड़ा विश्राम करने की सलाह दी। हनुमान जब थकान उतारने के लिए पास ही एक तालाब में स्नान करने के लिए गए तो एक मादा मगरमच्छ ने उनपर आक्रमण कर दिया। हनुमान ने उसे मार डाला। वह मादा मगरमच्छ एक दिव्य स्त्री के रूप में प्रकट हुई और उसने हनुमान को बताया कि वह  एक श्राप के कारण मगरमच्छ बन गयी थी और हनुमान ने उसे मारकर उसे श्राप मुक्त कर दिया है। उसने यह भी बताया कि वह साधु कोई और नहीं रावण का भेजा हुआ राक्षस है जो हनुमान को उनके मंतव्य से भटका रहा है। यह जान हनुमान ने कालनेमि का वध कर दिया और आगे उड़ गए। हिमालय पहुँचकर हनुमान ने देखा कि दिव्य जड़ी बूटियों से एक पूरा पर्वत ही चमक रहा है। वे संजवनी बूटी को पहचान न सके और पूरा पर्वत  ही उठा लाये। जब हनुमान पहाड़ लेकर अयोध्या के ऊपर से निकले तब एक प्रहरी ने भरत को यह बात बताई।  भरत ने मायावी राक्षस जान हनुमान के ऊपर तीर चला दिया। तीर लगने से हनुमान श्री राम श्री राम कहते हुए पर्वत सहित धरती पर आ गिरे। हनुमान के मुँह से राम नाम का जाप सुन भरत को आश्चर्य हुआ। दोनों में परिचय का आदान प्रदान हुआ। दोनों ने एक दूसरे को गले से लगाया। तब हनुमान ने भरत को राम और रावण के युद्ध के विषय में बताया सुनकर भरत आवेश में आ गए और अपनी सेना लेकर राम की सहायता के लिए चलने को तत्पर हो गए। हनुमान ने उन्हें  स्थिति की गंभीरता से अवगत कराया और पर्वत लेकर लंका की और उड़ चले। हनुमान के लंका पहुंचने पर सुषैण वैध ने सांजवणी बूटी की सहायता से लक्ष्मण को ठीक कर दिया। जय श्री राम के जय घोष से आसमान गूँज उठा। 

मेघनाद वध 

अगले दिन युद्ध में जाने से पहले मेघनाद एक गुप्त स्थान पर निकुंबला देवी के मंदिर में यज्ञ करने गया। यज्ञ पूरा होने पर उसे मारना असंभव हो जाता। विभीषण के गुप्तचरों ने उसे इस बात की सूचना दी। विभीषण से सूचना पाकर राम की आज्ञा से लक्ष्मण , विभीषण और वानर सेना को साथ लेकर यज्ञ स्थान पर पहुंचे। वह पहुंचकर लक्ष्मण और वानर सेना ने यज्ञ का विध्वंस कर डाला। यह देख मेघनाद विभीषण को अपशब्द कहने लगा। उसने विभीषण को कुलद्रोही और देशद्रोही की संज्ञा भी दी। लक्ष्मण और मेघनाद के बीच भयानक युद्ध छिड़ गया। लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र द्वारा दिए गए ऐन्द्रास्त्र को चलाकर मेघनाद का वध कर दिया। लक्ष्मण की बहादुरी की कथा सुनकार राम बहुत प्रसन्न हुए।

राम रावण युद्ध 

मेघनाद की मृत्यु का समाचार सुनकर रावण क्रोध से भर उठा और बची हुई सेना को एकत्रित कर युद्ध भूमि की और चल पड़ा। रास्ते में अनेक प्रकार के अपशगुन होने लगे। उसने सभीअपशगुनों को अनदेखा कर दिया।  युद्ध भूमि पहुंचते ही उसने वानर सेना का नाश करना शुरू कर दिया। यह देखकर राम रावण से युद्ध करने के लिए आगे आए। युद्ध में रावण ने राम को भी  घायल  कर दिया , तब राम ने रावण को ललकारते हुए कहा ,"हे रावण आज तेरा अंत निश्तित है , तेरा काल ही मुझे तेरे सामने ले आया है। आज ये धरती तेरे बोझ से मुक्त हो जाएगी।" राम ने रावण पर भीषण बाणो की वर्षा शुरू कर दी। रावण अपने सुसज्जित रथ पर बैठकर युद्ध कर रहा था , जबकि राम रथ हीन थे। यह देख देवराज इंद्र ने अपने सारथि मातलि के साथ अपना रथ राम के लिए भेजा। राम इंद्र के रथ पर चढ़कर युद्ध करने लगे। दोनों महावीर एक दूसरे पर भयंकर शक्तियों का उपयोग करने लगे। राम को चिंता हो उठी कि जिन बाणो से उह्नोंने खर दूषण और बाली जैसे योद्धाओं को मारा था उनका रावण पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। उनके बाण से जबभी रावण का सर कटता तब दूसरा सिर प्रकट हो जाता। तब विभीषण ने राम को बताया कि रावण की नाभि में अमृत कलश है,  यदि राम रावण की नाभि में शक्ति बाण मार सकें तो अवश्य ही रावण मारा जाएगा। राम ने ऐसा ही किया। राम का शक्ति बाण रावण की नाभि में लगते ही रावण के हाथ से धनुष छूट गया और वह रथ से लुढ़ककर धरती पर जा गिरा। देवताओं की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहा। राम की स्तुति करते हुए वे आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे। वानर सेना ने राम की जय जय कार से सारी  पृथ्वी और आकाश को गूंजा दिया।  

रावण वध के पश्चात् सोने की लंका की ओर कोई मोह न दिखाते हुए राम ने विभीषण को लंका के सिंहासन पर आसीन किया और स्वयं सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौट गए।  



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