जब पश्चिमी विज्ञान ने अपने आप को ही गलत साबित किया (When western science proved itself wrong)

When western science proved itself wrong

वैसे तो हम लोग हमेशा ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति को छोड़ कर पश्चिमी सभ्यता की ओर अधिक आकर्षित होते रहे हैं, पर आज मैं आपको इस ब्लॉग पोस्ट के जरिये, कुछ उदाहरण देकर यह बताना चाहता हूँ कि कब कब पश्चिमी विज्ञान ने अपने आप को ही गलत साबित किया है। ऐसा होने के कई कारण हो सकते हैं , फिर चाहें वो अनभिज्ञता हो या व्यापारिक कारण या अधूरा ज्ञान भी हो सकता है, पर ऐसा हुआ है । इसके साथ साथ एक और बात भी सच है की जब जब बात चयन की आयी है हमने हमेशा पश्चिमी चीजों को ही अधिक महत्व दिया है , इसका एक साधारण लेकिन ज्वलंत उदहारण यह है कि एक अच्छी खासी विकसित हिंदी भाषा के होते हुए भी हम में से ज्यादातर लोग अंग्रेजी को हिंदी से ज्यादा महत्त्व देते हैं।

आइये मैं आपको कुछ उदहारणों के माध्यम से बताता हूँ, जो मैंने अपनी जिंदगी में अनुभव किए हैं , कि कैसे पश्चिमी विज्ञान ने कई बार अपने आप को ही गलत साबित किया है।

टॉन्सिल्स (Tonsils) का इलाज

यदि आपकी उम्र 40 वर्ष से अधिक है और अगर आप 40 वर्ष पीछे फ्लैशबैक में जाएं तो आपको याद आएगा कि किसी साधारण बातचीत में कोई न कोई ऐसा निकल आता था जिसका खुद का या उसके किसी जानने वाले का टॉन्सिल का ऑपरेशन हुआ होता था। सबकी कहानी एक सी ही होती थी। टॉन्सिल फूल जाते थे और टॉन्सिल हमारे शरीर में अवांछनीय अंग है ऐसा कहकर डॉक्टर ने ऑपरेट कर के निकाल दिया होता था। आज 40 साल बाद आपको एक भी ऐसी कहानी सुनने के लिए नहीं मिलेगी बल्कि आज यदि आप किसी से कहेंगे कि टॉन्सिल हमारे शरीर का एक अवांछनीय अंग है तो वो आपको पागल समझेगा और उल्टा आपको बातएगा की टॉन्सिल हमारी प्रतिरोधात्मक क्षमता यानि की इम्युनिटी का जरूरी भाग है।  यहाँ समस्या यह नहीं है कि विज्ञान ने नई नई खोज करे अपने को सुधारा बल्कि समस्या यह है कि विज्ञान ने अपनी गलती मानी ही नहीं और चुपचाप से हमारी किताबों में पिछली जानकारी मिटाकर नई जानकारी कि, टॉन्सिल हमारी प्रतिरोधात्मक क्षमता यानि की इम्युनिटी का जरूरी भाग है डाल दी गयी। अब इस बात को एक पीढ़ी से अधिक बीत चुकी है और नई पीढ़ी यह जानती भी नहीं कि इस विषय में कभी न  केवल विज्ञान गलत था बल्कि उसकी दिशा भी गलत थी। अब यह गलती थी या उस समय टॉन्सिल का ऑपरेशन और उसके बार इस्तेमाल होने वाली दवाइयों को बेचने की साजिश , कौन जानता है।

अपेंडिक्स (Appendix) का इलाज

जो हाल आज से 40 साल पहले टॉन्सिल्स का था , वही हाल आज से २५-30 साल पहले अपेंडिक्स का था।  अचानक खबर मिलती थी कि फलां को कल पेट में बहुत दर्द हुआ, उसको अस्पताल ले गए थे , जहाँ डॉक्टर  ने उसका अपेंडिक्स का ऑपरेशन करके उसका अपेंडिक्स निकाल दिया। सुनने वाला तुरंत अपना ज्ञान बांटता था , कि अपेंडिक्स तो हमारे शरीर में एक बेकार अंग (vestigial organ) है जो मानव विकास के क्रम में छूट गया। यानि कि जैसे पूँछ गायब हो गई , अपेंडिक्स गायब नहीं हुई। ये सब उस समय हमारी स्कूल की किताबों का हिस्सा था और हमें पढ़ाया जाता था। आज तीस साल बाद शायद ही कोई अपेंडिक्स का ऑपरेशन सुनाई देता हो। आज अपेंडिक्स को हमारी प्रतिरोधात्मक क्षमता यानि की इम्युनिटी का जरूरी भाग माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि ये हमारी आज की स्कूल की किताबों में लिखा हुआ है।  बस नहीं लिखा तो ये की विज्ञान पहले इस विषय में गलत था और इसमें सुधार किया गया है। यदि वैकल्पिक चिकित्सा पद्यति जैसे कि आयुर्वेद और होम्योपैथी में कोई गलती मिल गयी होती हो दुनिया भर के पश्चिमी और भारतीय मैगज़ीन और अख़बार चीख चीख कर सालों तक सबको बताते, उदहारण के लिए जैसे कि एलॉपथी के सभी लेखों में आयुर्वेद में भारी धातुओं के प्रयोग को सेहत के लिए बहुत खतरनाक बताया जाता है। आयुर्वेद ने तो 5000 सालों में किसी का कुछ नुकसान किया नहीं पर कल यदि पश्चिमी ज्ञान को पता चल गया कि भारी धातुएँ सेहत के लिए अच्छी होती हैं तो वो अवश्य ही चुपचाप से संसार भर में अपने पुराने प्रकाशित लेखों को गायब कर देंगे और नया ज्ञान अपनी नई खोज के तौर पर हमारी साइंस की किताबों में लिख देंगे।


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गाल ब्लैडर (Gall Bladder) का इलाज

अब चलते हैं आज के लेटेस्ट ट्रेंड की तरफ यानि की गाल ब्लैडर का इलाज।  तो मित्रों जो ट्रेंड आज  से 40 साल पहले टॉन्सिल्स का था और 25 साल पहले अपेंडिक्स का था , आज वही ट्रेंड गाल ब्लैडर के इलाज का है। बस पेट का दर्द होने दीजिये , डाक्टर के पास जाइये और ज्यादा चांस यही निकलेगा की आपके गाल ब्लैडर में पथरी है और इसको निकालना पड़ेगा।  आज गाल ब्लैडर ऑपरेशन करके निकालने की दर इतनी तेज है की यदि आप चार लोगो से बात करेंगे तो सभी चारों की रिश्तेदारी या जान पहचान में ऐसे एक दो मामले जरूर होंगे जिनका गाल ब्लैडर निकाला जा चुका होगा। पता नहीं कैसे पिछले कुछ दशकों में हमारे टॉन्सिल्स और अपेंडिक्स तो मजबूत हो गए हैं पर शायद गाल ब्लैडर कमजोर हो गए हैं , या फिर ये पैसे कमाने का नया तरीका है। इसका उत्तर तो २० साल बाद का समय ही बताएगा कि उस समय भी गाल ब्लैडर ही निकाले जा रहे होंगे या कुछ और ? पर आज तो गाल ब्लैडर निकालना एक बड़ी इंडस्ट्री बन गया है। सारे भारत का तो मुझे पता नहीं पर दिल्ली एनसीआर में ऐसे एक हॉस्पिटल के चेन मुझे मालूम है जो केवल गाल ब्लैडर का ही इलाज और ऑपरेशन करते हैं और उनका बिज़नेस अच्छा चल रहा है।

चारकोल वाला टूथपेस्ट (Charcoal Toothpaste)

मैं यहां कंपनी का नाम तो नहीं बताऊंगा पर जहां तक मेरी यादाश्त है , जब 'हम लोग' और 'ये जो है जिंदगी' जैसे सीरियल आते थे तब एक टूथ पाउडर का विज्ञापन आता था , एक सफ़ेद सतह पर कोयले का चूरा (पाउडर) और उस कंपनी के टूथ पाउडर पड़े होते थे , जिनको एक डॉक्टर जैसा सफ़ेद कोट पहना आदमी कपड़े से पोंछ देता था। जहाँ एक और सफ़ेद टूथ पाउडर कोई निशान नहीं छोड़ता था वहीँ कोयले का पाउडर काला धब्बा छोड़ जाता था। इसमें यह दिखाने का प्रयत्न किया गया था की भारतीय लोग जो , कोयले , कोयले की राख और ईंट के चूरे इत्यादि से उस समय दांत माँझ लिया करते थे , वे सब दांतो को नुकसान पहुंचाते थे और आप टूथ पाउडर से दांत साफ़ करेंगे तो ही दांतों के लिए ठीक है। आज लगभग ४० साल बाद चारकोल (कोयले का परिष्कृत रूप) वाला टूथ पेस्ट बिकता है। एक समय हमारे कोयले से दांत मांझने को गलत कहा गया और आज हमें दाँत मांझने के लिए कोयला बेचा जा रहा है और लोग धड़ल्ले से खरीद रहे हैं। मैंने उस विज्ञापन को यूट्यूब पर खोजने की  बहुत कोशिश की परन्तु मुझे मिला नहीं , वर्ना मैं वो विज्ञापन यहाँ अवश्य प्रकाशित करता।


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वनस्पति घी (Vanaspati Ghee)

पचास , साठ और सत्तर के दशक में भारत से वनस्पति घी का गहन परिचय कराया गया। 'डालडा' शब्द तो जैसे इसका पर्याय ही बन गया था। अब चूंकि घी (देसी) केवल दक्षिण एशिया में ही इस्तेमाल होता है तो यह उत्पाद (प्रोडक्ट) केवल हमारे देश को ध्यान में रखकर ही बनाया गया था। इसकी खराबी और अच्छाई कुछ भी प्रकाशित नहीं करी गयी , बस खुशबू को छोड़कर , बाकी सब कुछ यानि की रंग रूप बिलकुल देसी घी जैसा रखा गया और कीमत देसी घी की कीमत से चौथाई। यूँ समझिये की भारत की गरीब जनता को तोहफा दिया गया था। कम कीमत और देसी घी जैसा रंग रूप होने की वजह से इसने बहुत जल्दी भारतीय रसोइयों में अपना स्थान बना लिया। नतीजा था , अस्सी का दशक आते आते भारत में हार्ट अटैक मामले अचानक तेजी से सामने आने लगे। हर मौत के पीछे ज्यादातर कारण हार्ट अटैक ही होता।  आगे की कहानी नीचे रिफाइंड आयल के साथ जारी है।

रिफाइंड तेल (Refined Oil)

वनस्पति घी से बढ़ते हुए हार्ट अटैक के मामलों को संभालने के लिए पश्चिमी विज्ञान फिर एक बार संकट मोचन की तरह सामने आया और अस्सी / नब्बे  के दशक में भारत को रिफाइंड आयल का तोहफा दे दिया गया। भारत वापिस देसी घी की ओर न चला जाये इसके लिए यह तोहफा जरूरी था और सबको यह ज्ञान भी देना जरूरी था का भारत को दिए गए इस नायब तोहफे की खासियत क्या है। तो यह अमूल्य ज्ञान हमारी विज्ञान की किताबों में भी डाल दिया गया। हमें सिखाया जाने लगा कि वनस्पति घी ख़राब होता है क्योंकि वो हाइड्रोजनेटेड होता है , जबकि रिफाइंड आयल हाइड्रोजनेटेड नहीं होता। इसी कारण से वनस्पति घी कमरे के तापमान (room temperature) पर जम जाता है और रिफाइंड आयल नहीं जमता।  जो वनस्पति घी कमरे के तापमान पर जम जाता है वो हमारी धमनियों में भी जम जाता है , इसीलिए हार्ट अटैक होता है। और वनस्पति घी सैचुरेटेड फैट्स होता है जो कि हार्ट के लिए बहुत खतरनाक होता है और रिफाइंड आयल नॉन सैचुरेटेड फैट्स होता है जो हार्ट के लिए अच्छा है। जब हमें ये क्लास में पढ़ाया जा रहा था तो मैंने मैडम से पूछा था की मैडम , सरसों का तेल भी नहीं जमता तो क्या वो नॉन सैचुरेटेड फैट्स के उदाहरण में एग्जाम में लिख सकते हैं तो मैडम को खुद नहीं पता था की सरसों का तेल नॉन सैचुरेटेड फैट्स है कि नहीं।  खैर रिफाइंड आयल खाने से हार्ट अटैक का तो पता नहीं कम हुए कि नहीं पर , नब्बे के दशक से डायबिटीज के केस भारत में बेतहाशा बढ़ने लगे जो आज तक कायम हैं क्योंकि रिफाइंड आयल भी आज तक कायम है।


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ओलिव आयल (Olive Oil)

अब पिछले पच्चीस सालों में रिफाइंड आयल से काफी कमाई होने के बाद , कुछ नया चाहिये था , इसलिए अब पश्चिमी और  से ओलिव आयल आ गया। अचानक बहुत सारी स्टडीज आने लगीं , जिसमें ओलिव आयल की खूबियों के कसीदे गढ़े जाने लगे। संयोग यह रखा गया की 1991 में अर्थ व्यवस्था में क्रांति की वजह से जब नई सदी भारतीयों के पास पैसा बढ़ने लगा तो यह बिलकुल सही समय था ओलिव आयल जैसे 10 गुना महंगे प्रोडक्ट को भारत में घुसाने का। एक तरफ जहाँ ओलिव आयल को अच्छा बताने वाली स्टडीज की भरमार थी तो दूसरी तरफ , हार्ट के लिए डॉक्टर इसे धड़ल्ले से रेकमेंड (सिफारिश) करने लगे। शुरू शुरू में में यह १० से १५ गुना महंगा था जो अभी भी सरसों के तेल से पांच छह गुना महंगा है। मजे की बात यह है कि यह ऐसे पौधे से निकलता है जो भारत में नहीं होता तो उन्होंने यह सुनिश्चित कर लिया की भारत इसका तोड़ जल्दी ना ढूंढ पाए। कुछ भी हो पश्चिम का यह प्रोडक्ट भारत में बहुत फल फूल रहा है। लेकिन ओलिव आयल को दुनिया में एक दूसरी ही चुनौती का सामना करना पड़ा। ओलिव आयल के साथ साथ दुनिया में इंटरनेट भी आ गया।  कुछ पश्चिम के और कुछ भारत के खुराफाती लोगों ने जल्द ही दुनिया को यह बता दिया कि भारत का सरसों का तेल वह सब खूबियां रखता है जो ओलिव आयल में बताई जाती हैं। जल्दी ही पश्चिमी दुकानों में सरसों का तेल उपलब्ध होने लगा। ऐसा होते देखकर ओलिव आयल लॉबी को धक्का लगा और एकदम से पश्चिमी शोधकर्ताओं ने बहुत सारी प्रायोजित (sponsored) स्टडीज कर डाली और डॉक्यूमेंट्री चैनल्स और मैगज़ीनों में ऐसी स्टडीज की बाढ़ आ गयी जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया की ओलिव आयल और सरसों के तेल में कोई समानता नहीं है और ओलिव आयल वाले फायदे सरसों का तेल नहीं दे सकता। मैंने खुद बहुत साल पहले ऐसी एक स्टडी पढ़ी थी जिसमें 500 लोगों से सैंपल साइज़ पर यह निष्कर्ष निकाल दिया गया था की सरसों का तेल हृदय के लिए ख़राब है। एक डॉक्यूमेंट्री चैनल पर तो मैंने ऐसी स्टडी  भी देखी जिसमे शायद 30 लोगों पर स्टडीज करके सरसों के तेल को ओलिव आयल के सामने बेकार सिद्ध कर दिया गया था। हे भगवान अब 5000 सालो हे हजारों पीढ़ियों में अरबों लोगों द्वारा इस्तेमाल किया गया सरसों का तेल ३० लोगों या 500 लोगों की स्टडीज में फेल होने लगा। अब पता नहीं पश्चिम को कितने साल लगेंगे हमें यह बताने के लिए कि ओलिव आयल भी इतना अच्छा नहीं है और इससे भी बेहतर प्रोडक्ट वो ले आये है। और हमें ये भी नहीं पता कि जैसे वनस्पति घी ने हार्ट अटैक के मामले बढ़ाये , रिफाइंड आयल ने डायबिटीज बधाई , अब ये ओलिव आयल क्या बढ़ाएगा।

ओट्स (Oats)

ओट्स की कहानी भी कुछ कुछ ओलिव आयल जैसी ही है। इसे भी भारत में तभी लांच किया गया जब भारत की उपभोक्ता शक्ति बढ़ी और भारत एक बड़े उपभोक्ता बाजार के रूप में उभरा। इसमें भी जो फसल इस्तेमाल होती है वो भारत में नहीं उगाई जाती।  तो यहाँ भी यह ध्यान रखा गया की भारत में आसानी से इसका विकल्प उयलब्ध न हो सके।  इसे कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल कम करने वाला बताया गया और ओलिव आयल की तरह ही डॉक्टर इसको रिकमेंड करने लगे। लेकिन इंटरनेट पर खुराफाती लोगों ने जल्दी ही बता दिया कि भारत में ज्वार इसका बेहतर विकल्प है। परन्तु यहाँ ओट्स और ज्वार में वैसी टक्कर नहीं है जैसी की सरसों के तेल और ओलिव आयल में है क्योंकि जहाँ सरसों के तेल का भारत में अभी भी बहुत ज्यादा प्रचलन में है वहीं ज्वार ,ओट्स के आने से पहले ही प्रचलन से बाहर हो चुकी थी।  तो कोई मुकाबला ना होने की वजह से ओट्स बाजार में 400 रूपए किलो के हिसाब से धड़ल्ले से उपजब्ध है और इसका उपभोग भी हो रहा है। अब भगवान ही जाने कब पश्चिमी विज्ञान हमें बताएगा कि ओट्स सेहत के लिए इतना भी अच्छा नहीं है ओर वो हमारी सेहत का ख्याल रखते हुए हमारे लिए कोई नया प्रोडक्ट ले आये हैं।

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